________________
७६८ ]
एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य पर प्रभाव पड़ता है
शंका- अंतरंगभाव क्या बाह्यधर्म का कारण है ?
समाधान - बाह्यधर्म अंतरंगभाव का कारण है। कहा भी है
पलिगं समास्थाय भावलिंगो भवेद्यतिः । विना तेन न वन्द्यः स्थानानाव्रतधरोपि ॥ द्रव्यलिगमिदं ज्ञेयं भावलिंगस्य कारणं ।
तदध्यात्मकृतं स्पष्टं न नेत्रविषयं यतः ॥ ( भावप्राभूत गाया २ की टीका )
अर्थ-मुनि द्रव्यलिङ्ग धारणकर भावलिङ्गी होता है, नानाव्रतों का धारक होने पर भी द्रव्यलिंग के बिना मुनि वन्दनीय नहीं है । इस द्रव्यलिंग को भावलिंग का कारण जानना चाहिये । श्रात्मा के भीतर होनेवाला भावलिंग नेत्रों का स्पष्ट विषय नहीं है।
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार।
इससे स्पष्ट है कि बाह्यधमं कारण है और अंतरंग भाव कार्य है । बाह्यधमं के बिना अंतरंग भाव नहीं होता, यह सिद्ध है । जो वस्त्रसहित के सातवगुणस्थान मानते हैं, इससे उसका भी खण्डन हो जाता है। जो एक द्रव्य का प्रभाव दूसरे द्रव्य पर नहीं मानते हैं, इन प्रार्षवाक्यों से उस सिद्धांत का भी खंडन हो जाता है ।
- जै. ग. 25-12-69/V111 / रो. ला. मित्तल
प्रथम पांच गुणस्थान वाले मुनि द्रव्यलिंगी ही होते हैं
शंका- मुनि के दो भेद हैं, द्रव्यलिंगी व मालिंगी। इनमें प्रत्यलिंगी पहिले गुणस्थान वाले ही होते हैं या १ से ५ गुणस्थान वाले ?
समाधान- - प्रत्याख्यान दो प्रकार का है, द्रश्यप्रत्याख्यान और भावप्रत्याख्यान । जिन द्रव्यों के निमित्त से क्रोध, मान, माया, लोभकषाय तथा हिंसा आदि पाप उत्पन्न होते हैं उनके त्याग को द्रव्यप्रत्याख्यान कहते हैं । और क्रोधादि कषाय व हिंसादि पापरूप भावों का त्याग भावप्रत्याख्यान है ।
श्री समयसार गाथा २६५ व टीका में भी कहा है कि बाह्य वस्तु अध्यवसान ( रागाविभावों ) का कारण है। इसलिये अध्यवसान को आश्रयभूत बाह्यवस्तु का अत्यन्त निषेध किया है, क्योंकि कारण के निषेध से ही कार्य का प्रतिषेध है'।
श्री समयसार गाथा २८३-२६५ में द्रव्य और भाव से अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान दो प्रकार का बतलाया है । उसकी टीका में निम्न प्रकार कहा है
" आत्मा स्वतः रागादिका अकारक ही है, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो अर्थात् यदि आत्मा स्वतः ही रागादिभावों का कारक हो तो अप्रत्याख्यान और प्रप्रतिक्रमण की द्विविधता का उपदेश नहीं हो सकता अप्रत्याख्यान और अप्रतिक्रमण का जो वास्तव में द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का उपदेश है, वह द्रव्य और भाव के निमित्तनैमित्तिकत्व को प्रगट करता है और आत्मा के मकतूं स्व को ही बतलाता है। इसलिये यह
टीका - " तत एव चाध्यवसानाश्रयभूतस्य
१. " चत्थु पहुच जं पुण अन्ावसाणं तु होड़ जीवाणं ।" बाच वस्तुनोऽत्यंत प्रतिषेधः हेतुप्रतिषेधेन हेतुमत्प्रतिषेधात् ।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org