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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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समाधान – प्रथमशुक्लध्यान में जो द्रव्य, गुण व पर्याय की तथा योग को पलटन होती है वह बुद्धिपूर्वक नहीं होती और न यह विकल्प होता है कि पूर्व में द्रव्य का ध्यान था अब पर्याय का ध्यान है। द्रव्य, गुण या पर्याय में से जो ध्येय होता है उस पर ही उपयोग एकाग्र हो जाता है। योग कौनसा है ऐसा विकल्प भी नहीं होता। योग की पलटन उपयोग में नहीं आती है ।
- जै. सं. 25-9-58 / V / ब. बसंतीबाई, हजारीबाग
प्रथम शुक्लध्यान में "संक्रान्ति"
शंका- सर्वार्थसिद्धि पृ० ४५६ पंक्ति १६ अर्थ और व्यञ्जन तथा काय और वचन में पृथमस्वरूप से संक्रमण करने वाले मन के द्वारा मोहनीयकर्म की प्रकृतियों का उपशमन और क्षय करता हुआ पृथवस्वतिकंवीचार ध्यान को धारण करनेवाला होता है । इसका क्या तात्पर्य है ? क्या मन के साथ काय और वचन में ही पलटन होती है ?
समाधान- 'मन के द्वारा इसका तात्पर्य यह है कि मन की एकाग्रता द्वारा अर्थात् ध्यान द्वारा अर्थ से अर्थान्तर और एक व्यजन से व्यजनांवर तथा काय की क्रिया से वचन की क्रिया इसप्रकार पृथक्त्ववितर्कवीचारध्यान में पलटन होती रहती है ।
- जै. ग. 10-6-65 / IX / 2. ला. जन, मेरठ
आदि के दो शुक्लध्यानों के ध्याता के श्रुतज्ञान
शंका-अध्याय ९ सूत्र ४१ की सर्वार्थसिद्धि टीका में लिखा है- 'एक आथयो ययोस्ते एकाव्ये' अर्थात् जिन दो ध्यानों का एक आश्रय होता है वे एक आध्यवाले कहलाते हैं। आगे लिखा है 'उमयेऽपि परिप्राप्तयत ज्ञाननिष्ठेनारभ्यते इत्यर्थः ' अर्थात् जिसने सम्पूर्ण तज्ञान प्राप्त कर लिया है उसके द्वारा ही ये दो ध्यान आरम्भ किये जाते हैं; यह उक्त कथन का तात्पर्य है प्रश्न यह है कि 'एक आधयवाले' इसका क्या तात्पर्य है? क्या यही कि ये दोनों ध्यान सम्पूर्ण भूतज्ञान प्राप्त कर लेने वाले अर्थात् श्रुतके वली के ही होते हैं--अर्थात् उनके आश्रय से होते हैं अन्य के आश्रय नहीं होते ।
समाधान-ध्यान जीव का परिणाम है, अतः ध्यान जीव के आश्रय से रहता है। पृथवत्ववितर्क और एकस्ववितर्क ये दो शुक्लध्यान किस जीव के आश्रय रहते हैं, ज्ञान की अपेक्षा इसका विचार किया जाता है। ये दोनों शुक्लध्यान उस जीव के आश्रय रहते हैं जिसको पूर्व का ज्ञान हो। अध्याय ९ सूत्र ३७ में कहा है- " शुक्ले चाय पूर्वथिवः।" अर्थात् आदि के दो शुक्लध्यान पूर्वविद् ( श्रुतकेवली ) के होते हैं। इसी बात को सूत्र ४१ में 'एका' शब्दों द्वारा कहा गया है। किन्तु यह कथन उत्कृष्ट की अपेक्षा से है । जघन्य की अपेक्षा आठ प्रवचनमातृकाप्रमाण जिनके श्रुतज्ञान होता है उनके भी ये दोनों ध्यान सम्भन हैं। अध्याय ९ सूत्र ४७ की टीका में भी पूज्यपाद स्वामी ने कहा भी है
"धतं - पुलाकथकुशप्रतिसेवना कुशीला उत्कर्षणा मिश्राक्षरवशपूर्वधराः पूर्वधरा: । जघन्येन पुलाकस्य तमाचारवस्तु बकुश कुशीलनिप्रत्थानां अपगतधता केवलिनः ।"
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अर्थ – पुलाक, वकुश और प्रतिसेवना कुशील उत्कृष्टरूप से अभिनासर यशपूर्वधर होते हैं, कषायकुशील और निर्ग्रन्थ ( उपशान्तमोह, क्षीणमोह ) चौदह पूर्वधर होते हैं । जघन्यरूप से पुलाक का श्रत आचार वस्तु
कवायकुशीला निर्ग्रन्याश्च चतुर्दशतमष्टी प्रवचनमातरः । स्नातकाः
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