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[ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार :
जीव-अजीव आदि पदार्थों के अनुभवन को जानने को चेतना कहते हैं । वह अनुभवन ही अनुभूति है । श्रतः चैतन्य नाम अनुभूति का है । द्रव्यस्वरूप चिंतन को अनुभूति कहते हैं । स्व द्रव्यस्वरूप का चिंतन स्वानुभूति है । पंचास्तिकाय गाथा ३९ की टीका में भी कहा है कि चेतना, अनुभूति, उपलब्धि, वेदना इनका एकार्थ है ।
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धवल पु० १३ पृ० ६४ पर कहा है जो एकाग्रता है वह ध्यान है । चिन्तन, अनुप्रेक्षा, भावना ध्यान नहीं है | अतः स्वानुभूति अर्थात् स्वस्वरूपचितन के समय न धर्मध्यान है न शुक्लध्यान है और न निर्विकल्पसमाधि है । शुभचितन अथवा प्रशस्तचिंतन है ।
अविरतम्यष्टि की सरागअवस्था है उसके सरोग सम्यग्दर्शन है अतः उसके शुद्धोपयोग नहीं हो सकता है, क्योंकि शुद्धोपयोग तो वीतरागरत्नत्रयवाले के श्रेणी में होता है । अविरतसम्यग्दष्टि अर्थात् चतुर्थंगुणस्थान में शुभोपयोग होता है। कहा भी है
"अथ प्राभृतशास्त्रे तान्येव गुणस्थानानि संक्षेपेण शुभाशुभशुद्धोपयोगरूपेण कथितानि । कथमिति चेतु - मिथ्यात्व सासादन- मिश्र गुणस्थानत्रये तारतम्येनाशुभोपयोगः तदनन्तरमसंयत सम्यग्दृष्टि-देश विरत - प्रमत्तसंयतगुणस्थानत्रये तारतम्येन शुभोपयोगः, तदनन्तरमप्रमत्ता दिक्षीणकषायान्त गुणस्थानषट्के तारतम्येन शुद्धोपयोगः तदनन्तरं सयोग्ययोगीजिन- गुणस्थानद्वये शुद्धोपयोगफल मितिभावार्थ: ।" [ प्रवचनसार गा. ९ टीका ]
मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीनगुणस्थानों में तारतम्य से घटता- घटता प्रशुभोपयोग है । इसके पश्चात् संयतसम्यग्दृष्टि, देशविरत तथा प्रमत्तसंयत ऐसे तीनगुणस्थानों में तारतम्य से बढ़ता हुआ शुभोपयोग है । उसके पश्चात् अप्रमत्त से लेकर क्षीणकषाय तक छह गुणस्थानों में तारतम्य से बढ़ता हुआ शुद्धोपयोग है । सयोगिजिन और अयोगिजिन इन दो गुणस्थानों में शुद्धोपयोग का फल है ।
प्रवचनसार के इस कथन से भी स्पष्ट है कि अविरतसम्यग्दृष्टि के शुद्धोपयोग नहीं है शुभोपयोग है । स्वानुभूति के समय भी शुद्धोपयोग नहीं है ।
- जै. ग. 15-2-73 / VII / गम्भीरमल सोनी प्रथम शुक्लध्यान के भेद
शंका - प्रथम शुक्लध्यान के ४२ भेद कौन २ से हैं ?
समाधान - प्रथम शुक्लध्यान के ४२ भेद चारित्रसार पृ० १९३ - १९४ पर तथा सार समुच्चय पृ० ३०३ पर लिखे हैं । वे इस प्रकार हैं- प्रथं, अर्थान्तर, गुण, गुणान्तर, पर्याय, पर्यायान्तर इन छहों के योग त्रय संक्रमण से १८ भेद । अर्थ से गुण, गुणान्तर, पर्याय या पर्यायान्तर में इन चारों में आ जाने पर योग त्रय के सक्रमण से १२ भेद, ,अर्थान्तर से गुण, गुणान्तर, पर्याय या पर्यायान्तर इन चारों में ग्रा जाने से योग त्रय के संक्रमण से १२ भेद । १८+१२+१२=४२ भेद हुए ।
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प्रथम शुक्लध्यान में योगादि की बुद्धिपूर्वक पलटन का प्रभाव
शंका - प्रथम शुक्लध्यान में योग की पलटन होती है तथा द्रव्य, गुण व पर्याय की पलटन होती है वह पलटन उनके उपयोग में आती है या नहीं ?
- पत्राचार 4-11-77 / ब. प्र. स. पटना
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