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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
प्रमाण होता है; बकुश, कुशील, निग्रंथ का श्रुतज्ञान आठ प्रवचनमातृकाप्रमाण होता है । स्नातक श्रुतज्ञान से रहित केवली होते हैं ।
यहाँ पर निर्ग्रन्थ के जघन्य श्रुतज्ञान आठ प्रवचनमातृकाप्रमाण कहा है। निर्ग्रन्थ उपशान्तमोह और क्षीणमोह को कहते हैं । उपशान्तमोह और क्षीणमोह के आदि के दो शुक्लध्यान होते हैं । अतः आठ प्रवचनमातृका श्रुतज्ञानवाले के भी आदि के दो शुक्लध्यान हो सकते हैं।
- ज. ग. 10-6-65 / IX / र. ला. जैन, मेरठ
(१) मन वचन काय की क्रिया तथा इनके योगों में अंतर है (२) मन की एकाग्रता ही "निश्चल मन" है (३) निश्चल मन वाले के भी मनोयोग संभव है
शंका -- एकत्ववितर्कअवीचारध्यान में यदि मनोयोग नहीं है तो क्या बिना मन के भी ध्यान बन सकता है ? अर्थात् मनोयोग न रहते हुए भी भावमन या द्रव्यमन का कुछ कार्य होता रहता है या नहीं ? यदि नहीं तो फिर सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ ४५६ पर जो लिखा है—'योग को संक्रान्ति से रहित है, निश्चल मन वाला है' यदि उसके काय या वचनयोग इनमें से कोई एक हो तो निश्चल मनवाला कैसे होगा जबकि उसके मनोयोग होगा ही नहीं ? या मनोयोग का न होना निश्चल मन कहलाता है ?
समाधान - एकत्ववितकं अवीचारध्यान में मन, वचन, काय इन तीनों में से कोई एक योग होता है । मनोयोग हो हो, ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि किसी जीव के मनोयोग हो सकता है, किसी के वचनयोग और किसी के काययोग हो सकता है । मन के बिना एकत्ववितर्कवीचारध्यान नहीं बन सकता, किन्तु मनोयोग के बिना एकत्ववितर्कअवीचारध्यान हो सकता है। मनोयोग के रहते हुए भी भावमन या द्रव्यमन का कार्य हो सकता है । धवल पु. १ पृष्ठ २७९ पर कहा भी है
"मनोवाक्कायप्रवृत्तयोऽक्रमेण क्वचिद दृश्यन्त इति चेद्भवतु तासां प्रवृत्ति ष्टत्वात् न तत्प्रयत्नानामक्रमेण वृत्तिस्तयोपदेशाभावादिति ।"
अर्थ - " शंका- कहीं पर मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ युगपत् देखी जाती हैं ?
समाधान- यदि देखी जाती तो उनकी युगपत् प्रवृत्ति होओ। परन्तु इससे मन, वचन और काय की प्रवृत्ति के लिये जो प्रयत्न होता है उनकी युगपत् प्रवृत्ति सिद्ध नहीं हो सकती है, क्योंकि आगम में इस प्रकार का उपदेश नहीं मिलता है ।'
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इस आगम से सिद्ध है कि मन, वचन और काय की क्रिया में तथा मन, वचन और काय योग में अन्तर है । मन की एकाग्रता को निश्चलमन कहते हैं । निश्चलमनवाले के मन, वचन, काय इन तीनों योगों में से कोई भी एक योग सम्भव है । मनोयोग के होने या न होने को निश्चलमन नहीं कहते हैं ।
- जै. ग. 3-6-65/XI / ट. ला. जैन, मेरठ शुक्लध्यान श्रौर ज्ञान
शंका - शुक्लध्यान होने के पहले क्या द्वादशाङ्ग का ज्ञान होना जरूरी है ? जिसप्रकार कि तस्वार्थ सूत्र में शुक्ले चाद्य पूर्वविदः ९०३७ सूत्र है । लेकिन पंचास्तिकाय ( टीका ब्र. शीतलप्रसादजी ) पृष्ठ १५५ पर लिखा है कि अष्टप्रवचनमातृका ज्ञानवाले को भी शुक्लध्यान हो सकता है ? कृपया समाधान करें ।
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