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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
होती थी। पूज्य आचार्यकल्प श्रुतसागरजी महाराज का जहाँ भी चातुर्मास होता था, वहाँ वे मास, दो मास के लिए अवश्य आते थे और अपना अनुभव संघ को समर्पित करके अपने ज्ञान कूप को भरते थे, नित्य नया बनाते थे ।
जब मैं उनके शहर में पूज्य मनोहरलालजी वर्णी की जन्म जयन्ती के उपलक्ष में आयोजित समारोह में सम्मिलित होने हेतु सपत्नीक गया था तब उनके घर आतिथ्य भी स्वीकार किया था। ७६ वर्ष की आयु में आप दिवंगत हए। ऐसे व्यवहारकुशल और विवेकी पण्डितजी के लिये यथाशीघ्र मुक्ति की कामना करते हए मैं उनकी जान-गरिमा को अपनी श्रद्धांजलि देकर अपने आपको धन्यभाग्य समझता है। उनका अस्तित्व प्राचीन पडित परम्परा का एक बहुमूल्य स्तम्भ था। करणानुयोग विद्या के वे अप्रतिम भंडार थे। उनका जितना अच्छा और व्यापक उपयोग होना चाहिये था उतना नहीं हो सका; इसका मुझे और मुझ जैसे अनेक जिज्ञासुओं को आभास है । जैन समाज सजग हो जाता और उनके ज्ञानानुभव का पूरण रीति से पूरा-पूरा लाभ उठाती तो यह समाज के हित में होता । वे तो हर दम तैयार थे; लाभ लेने वालों की कमी थी। समय और लहर दोनों कभी किसी की राह देखते नहीं हैं।
स्वर्गीय पूज्य पण्डितजी का नाम करणानुयोग विशेषज्ञ के रूप में अमर रहेगा। इनका अभाव करणानुयोगपिपासुओं को खटकता रहेगा । इत्यलम्
लघुकाय और अगाधज्ञान * पं० राजकुमार शास्त्री, निवाई
इस हीन संहनन के युग में ब्र० रतनचन्दजी मुख्तार की लघुकाया और अगाधज्ञान को देखकर "उच्चतम संहनन के धारी तीर्थंकर केवली के अनन्त ज्ञान था" इस कथन में न ही शङ्का को स्थान रहता है और न प्रमाण संचित करने की आवश्यकता भी। विद्वद्वर्य मुख्तार साहब के छोटे से शरीर में करणानुयोग और द्रव्यानुयोग का महान् ज्ञान देखकर उस अनन्तज्ञान की पुष्टि स्वयं सिद्ध हो जाती थी। राजस्थान में निवाई जैन समाज श्रद्धालु एवं सम्पन्न समाज है। यही कारण है कि निवाई में करीब-करीब सभी छोटे-बड़े जैनाचार्यों के संघों का चातुर्मास व साधारण समागम होता ही रहता है। हर चातुर्मास में मुख्तार साहब की उपस्थिति अनिवार्य सी थी । आपका जैन तत्वज्ञान अगाध था। कैसा भी जटिल व गम्भीर प्रश्न हो आप उसका समाधान तुरन्त कर देते थे। साथ ही किस ग्रन्थ के कौन से अध्याय व श्लोक में उसका उल्लेख है यह भी स्पष्ट बता देते थे। विद्वदर्य को अपने बीच पाकर गौरव महसूस होता था। परम पूज्य अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी साधूवर्ग भी आपकी ज्ञानगम्भीरता से हर्षित होता था। आप में ज्ञान के साथ चारित्र का भी समावेश था । यह सोने में सुगन्ध वाली बात थी। आप इतने महान् विद्वान होते हुए भी अभिमान से बहुत दूर थे। प्रत्येक विद्वान् को समादर देते थे। जहाँ भी जाते, उस समाज को उद्बोधन देते और कहते कि आप लोग बड़े भाग्यशाली हैं, जो आपकी समाज में इतने विद्वान हैं । समाज को समुन्नत बनाने में दो ही का योग है-(१) निर्ग्रन्थ दि० जैन साधुओं का और (२) जैन विद्वानों का । अगर आप अपना कल्याण और समाजोन्नति करना चाहते हैं तो इनके प्रति श्रद्धा, भक्ति और सम्मान की भावना रखिये।
अाधुनिक विज्ञान की चर्चा करते हुए आपने एक दिन कहा--पण्डितजी ! जैन समाज को एक जैन लेबोरेटरी स्थापित करनी चाहिये, जिससे दूसरे लोग जैनों के सिद्धान्तों की, और आज से संख्यात, असंख्यात वर्ष
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