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पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
समाधान - श्री समन्तभद्राचार्य ने कहा है कि 'रागद्व ेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः । अर्थात् साधु पुरुष राग-द्व ेष दूर करने के लिए चारित्र को धारण करते हैं । चारित्र का लक्षण तथा भेद निम्न प्रकार है
हिसानृतचौर्येभ्यो मैथुनसेवा परिग्रहाभ्यां च ।
पापप्राणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥ ४९ ॥
सकलं विकलं चरणं, तत्सकल सर्वसंग विरतानाम् ।
अनगाराणां विकलं, सागाराणां संसगानाम् ॥५०॥। २० क० भा०
टीका - हिंसादि विरतिलक्षणं यच्चरणं प्राक् प्ररूपितं तत्-सकलं विकलं च भवति । तत्र सकलं परिपूर्ण महाव्रतं । केषां तद्भवति ? अनगाराणां मुनीनाम् । किंविशिष्टानां सर्वसंग विरतानां ? बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितानाम् । विकलमपरिपूर्णम् अणुव्रतरूपम् । केषां तद्भवति ? सागाराणां गृहस्थानाम् । कथंभूतानां ? संसगानां सग्रंथानाम् ॥ ५० ॥
पाप की प्रणालीरूप अर्थात् आस्रवरूप जो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील तथा परिग्रह से विरत होना व्रत है वह सम्यग्ज्ञानी का चारित्र है । अर्थात् सम्यग्दृष्टि का व्रत धारण करना ही चारित्र है । वह चारित्र दो प्रकार का है । महाव्रतरूप सकलचारित्र और अणुव्रतरूप एकदेश चारित्र । समस्त परिग्रह से रहित मुनियों के महाव्रतरूप सकल चारित्र होता है । परिग्रह सहित गृहस्थों के अणुव्रतरूप एकदेश चारित्र होता है ।
श्री शुभचन्द्राचार्य ने भी कहा है
यद्विशुद्धः परं धाम यद्योगिजनजीवितम् । तवृत्त सर्वसाद्यपदा संकलक्षणम् ॥१॥ पंचव्रतं समितिपंच गुप्तित्रयपवित्रितम् । श्री वीरवदनोद्द्वीणं चरणं चन्द्रनिर्मलम् ॥५॥ हिंसायामनुतेस्तेये मंथुने च परिग्रहे । विरतिव्रं तमित्युक्त' सर्वसत्त्वानुकम्पकः ॥६॥ महत्त्वहेतोर्गुणिभिः श्रितानि महान्ति मत्वा त्रिदशैनु तानि । महासुखज्ञाननिबन्धनानि, महाव्रतानीति सतां मतानि ॥ आचरितानि महद्भिच्च महान्तं प्रसाधयन्त्यर्थम् । स्वयमपि महान्ति यस्मान्महाव्रतानीत्यतस्तानि ॥
जो विशुद्धता का उत्कृष्टधाम है तथा योगीश्वरों का जीवन है और सर्व प्रकार की पापवृत्तियों से दूर रहना जिसका लक्षण है वह सम्यक् चारित्र है ।
श्री वर्द्धमान तीर्थंकर भगवान ने उस चन्द्रमा के तीन गुप्तिरूप तेरह प्रकार का कहा है। हिंसा, झूठ, चोरी, त्याग भाव व्रत है ।
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समान निर्मल चारित्र को पाँच व्रत, पाँच समिति और मैथुन और परिग्रह इन पापों से विरति भाव अर्थात्
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ये व्रत महत्ता के कारण हैं, इस कारण गुणी पुरुषों महान् हैं इस कारण देवताओं ने भी इन्हें नमस्कार किया है। के कारण हैं, इन कारणों से सत्पुरुषों ने इनको महाव्रत माना 1
तीर्थंकरों ने इनका प्राश्रय किया है। दूसरे ये स्वयं तीसरे महान् अतीन्द्रिय सुख ( मोक्ष सुख) और ज्ञान
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