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________________ •यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६३३ पाँच महाव्रतों का तीर्थंकर आदि महापुरुषों ने आचरण किया है तथा ये महाव्रत महान् पदार्थ अर्थात् मोक्ष को साधते हैं तथा स्वयं भी बड़े हैं । इन कारणों से ये महाव्रत I इन व्रतों के कारण ही सम्यग्दृष्टि के प्रतिसमय श्रसंख्यातगुणित निर्जरा होती रहती है । अविरत सम्यग्दृष्टि के व्रत न होने के कारण प्रतिसमय असंख्यातगुणित निर्जरा नहीं होती है मात्र सम्यक्त्वोत्पत्ति के समय निर्जरा होती है । 'असंखेज्जगुणाए सेडिए कम्मणिज्जरणहेदू वदं णाम ।' अर्थात् व्रत असंख्यात गुणितश्रेणी से कर्मनिर्जरा का कारण है । किन्तु जब तक दर्शन, ज्ञान, चारित्र जघन्यभाव से परिणमते तब तक निर्जरा के साथ बन्ध भी होता है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी कहा है दंसणणाणचरित जं परिणमवे जहण्णभावेण । नाणी तेण तु बज्झवि पुग्गलकम्मेण वित्रिहेण ॥ दर्शन, ज्ञान, चारित्र जिस कारण जघन्यभावकर परिणमते हैं, इसकारण से ज्ञानी नाना प्रकार के पुद्गल कर्मों से बंधता है । इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि व्रत न विभाव क्रिया हैं न आस्रव भाव हैं न हैय रूप हैं किन्तु मोक्ष के कारण होने से उपादेय रूप हैं । Jain Education International - जै. ग. 31-12-70/ VII / अमृतलाल १. शुभराग व शुभोपयोग में अन्तर एवं इन दोनों के स्वामी २. रागांश से ही बन्ध तथा रत्नत्रयांश से ही संवर- निर्जरा शंका-- शुभराग व शुभोपयोग में क्या अन्तर है ? समाधान - शुभराग का अर्थ प्रशस्तराग है। सरागसम्यग्दर्शन अथवा सरागसम्यक्चारित्र को शुभोपयोग कहते | शुभोपयोग में वीतरागता व सरागता मिश्रितरूप से रहती हैं। जिसमें वीतरागता मिश्रित न हो ऐसा एकला शुभराग तो निरतिशय मिध्यादृष्टि के होता है जिससे संवरनिर्जरा नहीं होती, मात्र पुण्यबंध होता है जो परम्परा संसार का ही कारण है, किन्तु इस पुण्य के उदय में देवगति की प्राप्ति होय है वहाँ जिनमत का निमित्त बना रहे हैं, यदि तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होनी होय तो होय जावे है । यदि वह शुभराग अरहंतादि विषै स्तवनादिरूप है तो वह कषाय की मंदता लिये है ता विशुद्ध परिणाम है । बहुरि समस्त कषायभाव मिटावने का साधन है, तातें शुद्ध परिणाम का कारण है सो ऐसा परिणामकरि अपना घातक घातिकर्म का हीनपना होने तें सहज ही वीतराग विशेषज्ञान प्रगट होय है । अथवा अरहंतादि का आकार अवलोकना वा स्वरूप विचार करना वा वचन सुनना वा निकटवर्ती होना वा तिनके अनुसार प्रवर्ताना इत्यादि कार्य तत्काल ही निमित्तभूत होय रागादिक को हीन करें है । जीव, अजीवादि का विशेषज्ञान ( भेदज्ञान ) को उपजावे हैं । ( मोक्षमार्ग प्रकाशक ) मिथ्यादृष्टि के अरहंत भक्ति आदि शुभराग को कहीं-कहीं पर शुभोपयोग भी कह दिया जाता है, किंतु प्रवचनसार गाथा ९ को तात्पर्यवृत्ति संस्कृत टीका में श्री जयसेन आचार्य ने तथा वृहद्रव्यसंग्रह गाथा ३४ की संस्कृत टीका में तो मिथ्यादृष्टि के अशुभ - पयोग ही कहा है । इसका कारण यह है- मिध्यादृष्टि के ज्ञान वैराग्यशक्ति का अभाव होने से संवरपूर्वक निर्जरा का अभाव है । मात्र पुण्य का बंध होता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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