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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
पंडितजी के इन दोनों कथनों में अन्तर है । किन्तु दूसरा कथन आर्ष ग्रन्थ का अनुवाद है अतः वही प्रामाणिक है ।
- जै. ग. 26-12-68 / VII / मगनमाला
शंका- क्षयोपशम में और क्षयोपशमलब्धि में क्या अन्तर है, क्योंकि दोनों अवस्था में संज्ञी के क्षयोपशम तो ज्ञानावरणी का ही है ।
समाधान - ज्ञान का क्षयोपशम तो प्रत्येक जीव के क्षीणकषाय गुणस्थान तक सदा पाया जाता है, किंतु क्षयोपशम लब्धि हर एक जीव के नहीं होती और सदा नहीं होती । क्षयोपशमलब्धि का स्वरूप इसप्रकार हैपूर्व संचित कर्मों के मलरूप पटल के अनुभाग स्पर्धक जिस समय विशुद्धि के द्वारा प्रतिसमय प्रनन्तगुणहीन होते हुए उदीरणा को प्राप्त किये जाते हैं उस समय क्षयोपशमलब्धि होती है । ( ष. खं. पु. ६ पू. २०४ व लब्धिसार गाथा ४ ) क्षयोपशमलब्धि में मात्र ज्ञानावरणीय कर्म के अनुभाग की हीनता नहीं होती, किन्तु समस्त पापप्रकृतियों का अनुभाग अनन्तगुणाहीन होकर प्रति समय उदय में श्राता है । अर्थात् जितना अनुभाग प्रथम समय में उदय में आया था दूसरे समय में उससे अनन्तगुणहीन उदय में श्राता है और तीसरे समय में दूसरे समय से भी अनन्त गुणहीन अनुभाग उदय में आता है। इस प्रकार प्रतिसमय अनन्तगुणहीन होता हुआ चला जाता है । क्षयोपशमज्ञान अनन्तगुणहीन अनुभाग प्रतिसमय उदय में श्रावे ऐसा नियम नहीं, किन्तु कभी षट्स्थानपतित हीन होकर उदय
है । कभी षट्स्थानपतित वृद्धि होकर उदय में आता है । षट्स्थान से अभिप्राय - अनन्तभाग, श्रसंख्यातभाग संख्यात भाग, संख्यातगुणा, असंख्यातगुणा और अनन्तगुणे का है ।
पुद्गल में श्रदधिकभाव का स्पष्टीकरण
शंका - पुदगल के दो भाव कहे गये हैं । १. औदयिक २. पारिणामिक | पुद्गल द्रव्य अचेतन है, उसके afrक भाव कैसे हैं ?
- जै. सं. 10-7-58 / VI / क. दे. गया
समाधान-जीव के रागादिभावों का निमित्त पाकर कार्माण वर्गणा द्रव्यकर्मरूप परिणम जाती है । कार्मारण वर्गणाओं के अतिरिक्त अन्य २२ पुद्गल वर्गणाओं में तो द्रव्यकर्मरूप परिणमने का सामर्थ्यं ही नहीं है, मात्र कार्माण वर्गणाओं में द्रव्यकर्मरूप परिणमने का सामर्थ्य ( शक्ति ) है; किन्तु सामर्थ्य होते हुए भी वे कार्माण, बिना निमित्त के स्वयं कर्मरूप नहीं परिणम जाती । रागादि परिणाम के निमित्त बिना भी यदि कार्माण वर्गरणा द्रव्यकर्मरूप परिणम जाती तो कार्माणवर्गरणा हर समय द्रव्यकर्म अवस्था में ही रहनी चाहिये थी ( परीक्षामुख छठा परिच्छेद सूत्र ६३-६४ ) । जीव के रागादिभाव तीव्र या मंद जिस प्रकार के होते हैं उसी प्रकार का अनुभाग अर्थात् फलदान शक्ति पुद्गलद्रव्यकर्म में पड़ती है । उदीरणा होकर या बिना उदीरणा जिस समय वह कर्म उदय में आता है उस समय उस कर्म के अनुभाग के अनुरूप जीव के परिणाम होते हैं और अगले समय वह निर्जीर्ण अर्थात् अकर्म अवस्था को प्राप्त हो जाता है । कोई भी कर्म स्वरूप या पररूप फल दिये बिना निर्जीर्ण अर्थात् श्रकर्म अवस्था को प्राप्त नहीं होता । ( क० पा० पु० ३, पृ० २४५ ) | पुद्गलकर्म का उदय में प्राकर फल देना पुद्गल द्रव्य का औदयिकभाव है ।
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- जै. सं. 4 - 12 - 58/V / रा. दा. कॅरामा
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