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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियाँ ( मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति ) तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, अनन्तानुबन्धी मान, अनन्तानुबन्धी माया, अनन्तानुबन्धी लोभ; इन सात प्रकृतियों का क्षय कर देने से उसके क्षायिकभाव हैं तथा चारित्रमोहनीय की शेष २१ प्रकृतियों के उपशम करने से औपशमिक भाव है । इस प्रकार क्षायिक सम्यग्दष्टि के उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थान में क्षायिक और प्रौपशमिक दोनों भाव एक साथ सम्भव हैं ।
- जै. ग. 21-11-66 / IX / ज. प्र. म. कु.
क्षयोपशम क्षय व उपशम से श्रभिप्राय
शंका- 'क्षयोपशम' में आगामी निषेकों का सदवस्थारूप उपशम इसका तात्पर्य यही है न कि क्षयोपशम के काल में प्रतिसमय उदय में आने वाले सर्वघातिस्पद्ध के देशघातिरूप में आते हैं और अगले समयों में उदय में आने वाले सत्ता में जैसे हैं वैसे ही स्थित रहते हैं अर्थात् उनकी उदीरणा नहीं होती। ऐसा तो नहीं कि क्षयोपशम का काल आरम्भ होने पर पहले समय में जो सर्वघातिस्पर्द्ध के उदय में आयें वे तो देशघातिरूप संक्रमण कर गये और बाकी काल के दूसरे तीसरे चौथे आदि समयों में सर्वघातिया का उदय ही नहीं होता । बस सत्ता में पड़े रहते हैं । इनमें से क्या सही है ?
समाधान - श्री वीरसेन आचार्य ने भिन्न-भिन्न स्थलों पर क्षयोपशम के भिन्न-भिन्न लक्षण कहे हैं । तथापि शंकाकार के लिये निम्न लक्षण उपयोगी है ।
"सव्वघादिफद्दयाणि अनंतगुणहीणाणि होतॄण देसघादि फद्दयत्तरोण परिणमिय उदयमागच्छंति, तेसिमणंतगुणहीणत्तं खओ णाम । देशघादिफद्दयसरूवेणवद्वाणमुवसमो । तेहि खओवसमेहि संजुत्तोदओ खओवसमोणाम ।" [ ध. पु. ७ पृ. ९२ ]
अर्थ – सबंधातीस्पर्धक अनन्तगुणे हीन होकर और देशघातीस्पर्धकों में परिणत होकर उदय में आते हैं । उन सर्वघातीस्पर्धकों का अनन्तगुणा हीनत्व ही क्षय कहलाता है और उनका देशघातीस्पर्धकों के रूप से अवस्थान होना उपशम है । उन्हीं क्षय और उपशम से संयुक्त उदय क्षयोपशम कहलाता है ।
—जै. ग. 6-12-65/ VIII / र, ला. जैन
क्षयोपशम लब्धि व क्षयोपशम में अन्तर
शंका- मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ० ३८४ पर क्षयोपशमलब्धि का जो स्वरूप लिखा है उससे यह समझ में नहीं आता कि क्षयोपशमलब्धि और क्षयोपशम में क्या अन्तर है ?
समाधान - मोक्षमार्ग प्रकाशक में श्री पं० टोडरमलजी ने क्षयोपशमलब्धि का स्वरूप इस प्रकार लिखा है — "उदयकाल को प्राप्त सर्वघाती स्पर्द्धकनिके निषेकनिका उदय का अभाव सो क्षय और अनागतकाल विषै उदय वने योग्य तिनही का सत्तारूप रहना सो उपशम, ऐसी देशघातीस्पर्द्ध निका उदय सहित कर्मनिकी अवस्था ताका नाम क्षयोपशम है । ताकी प्राप्ति सो क्षयोपशमलब्धि है । " ( मो. मा. प्र. अधि. ७ पू. ३८४-८५ )
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इन्हीं पं० टोडरमलजी ने लब्धिसार की टीका में लिखा है - "कर्मनिविषै मलरूप जे अप्रशस्त ज्ञानावरखादिक तिनिका पटल जो समूह ताकी शक्ति जो अनुभाग सो जिस काल विषै समय-समय प्रति अनन्तगुणा घटता अनुक्रम रूप होइ उदय होइ तिस काल विषै क्षयोपशमलब्धि है । " ( ल. सा. गा. ४ )
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