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गति और लिङ्ग - श्रदयिकभाव ?
शंका- 'गति' जो कि जीव + पुद्गल की किसी पर्याय की एक अवस्था विशेष है तथा 'लिङ्ग' जो कि किसी एक चिन्हमात्र का द्योतक शब्द है, औवधिकमाव कैसे हो सकते हैं । मेरी समझ में साधारणतया तो क्रोध, मान, माया, लोभ रागद्व ेष ही जीव के औदधिकभाव हो सकते हैं किन्तु 'गति' और 'लिङ्ग' औदयिकभाव कैसे हो सकते हैं ?
समाधान-तरवार्थ राजवार्तिक अ० २ सूत्र ६ में इस प्रकार कहा है-गतिनामकर्मोदय । दात्मनस्त भावपरिणामाद गतिरौदयिकी । येन कर्मणा आत्मनोनारका विभावावाप्तिर्भवति तद्गतिनाम चतुर्विधम् । गतिनामकर्म के उदय के कारण आत्मा के उस गति भावरूप परिणाम होने से 'गति' औदयिकभाव है । जिस कर्म के कारण आत्मा के नारकादि भाव होते हैं वह गतिनामकर्म चार प्रकार का है ।
पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
यहाँ पर गति का अर्थ चलना नहीं है, किन्तु भव है । इसी प्रकार लिङ्ग का अर्थ चिह्न नहीं है, किन्तु यहाँ पर वेद से अभिप्राय है । कहा भी है- वेदोदयापादितोऽभिलाषविशेषो लिङ्गम् । मावलिङ्गमात्मपरिणामः स्त्री नपुंसकान्योन्यभिलाषलक्षणः । स पुनश्चारित्र मोहविकल्पस्य नोकषायस्य स्त्रीवेदषु वेदनपुंसक वेदस्योदयादभवतीत्योदयकः रा० वा० अ० २ सूत्र ६ । वेद के उदय से उत्पन्न हुई विशेष अभिलाषा उसको वेद कहते हैं । स्त्री, पुरुष, नपुंसक रूप अभिलाषा लक्षण वाले ग्रात्मा के परिणाम भावलिंग है। स्त्री, पुरुष व नपुंसक वेद नोकषाय चारित्रमोहनीय के उदय से वह भाववेद होता है अतः औदयिकभाव है । औदयिकभाव के २१ भेद गिनाये उन २१ भेदों में चारकषाय भी हैं अतः क्रोध, मान, माया, लोभ, रागद्वेष भी प्रोदयिकभाव हैं ।
- जै. सं. 23-8- 56 / VI / बी. एल. पद्म, शुजालपुर
क्या व्रत श्रदयिक भाव हैं ?
शंका - व्रत क्या कर्मोदय से होते हैं और औदयिक भाव है ?
समाधान - पापों से विरक्त होने का नाम व्रत है और ये व्रत तो चारित्र हैं जैसा कि श्री समन्तभद्र स्वामी ने कहा है
अर्थ --- पाप की नाली स्वरूप हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह से विरक्त होना अर्थात् व्रत सम्यग्ज्ञानी का चारित्र है ।
रूप
हिसानृत चौर्येभ्यो मैथुनसेवा परिग्रहाभ्यां च ।
पापप्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ||४९|| ( रत्नकरंड )
तत्वार्थ सूत्र के दूसरे अध्याय में सम्यक्चारित्र को औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिक इन तीनभाव रूप बतलाया है । किसी भी आचार्य ने सम्यक्चारित्र को औदयिकभाव नहीं बतलाया है, क्योंकि रागादि प्रौदयिक • भाव बंध के अर्थात् संसार के कारण हैं, किन्तु सम्यक्चारित्र तो मोक्ष का कारण है । 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।' ऐसा सूत्र है ।
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असंयम औदकिभाव है, क्योंकि चारित्रमोहनीयकर्मोदय जनित है । व्रत असंयमरूप नहीं हैं, किन्तु संयमअतः व्रत औदयिकभाव नहीं हैं ।
जै. ग. 22-1-70 / VII / क. च. मा. च.
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