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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार !
___समाधान-नपुसकवेद प्रारूढ़, स्त्रीवेदआरूढ़ या पुरुषवेदप्रारूढ़ चारित्र मोह क्षपक के पुरुषवेद का बन्ध. विच्छेद हो जाने पर भी पुरुषवेद का अधःप्रवृत्तसंक्रमण होता है, गुणसंक्रमण नहीं होता, क्योंकि पुरुषवेद के मात्र दो ही संक्रमण सम्भव हैं १. अधःप्रवृत्त संक्रमण, २. सर्वसंक्रमण । सर्वसंक्रमण तो उस समय होता है जब क्षपक पुरुषवेद के शेष सर्वद्रव्य को संज्वलनक्रोधरूप संक्रमण करता है उससे पूर्व अधःप्रवृत्तसंक्रमण ही होता है। ( ज.ध. पू० ६ पृ० २९८, ३००, ३०२ इत्यादि तथा गो. क गा. ४२४ की संस्कृत टीका)। यदि कहा जाय कि गो. क. गा. ४१६ की संस्कृत टीका में तथा धवल पु. १६ पृ. ४०९ पर अधःप्रवृत्त संक्रमण मात्र सम्भव बन्धयोग्य प्रकृतियों का कहा है और पुरुषवेद के बन्धविच्छेद के पश्चात् पुरुषवेद का बंध सम्भव नहीं है प्रतः परुषवेद के बंध विच्छेद के पश्चात् पुरुष वेद का अध प्रवृत्तसंक्रमण कैसे हो सकता है गुणसंक्रमण होना चाहिए ? धवल पु. १६ पृ. ४०९ तथा गो. क. गा. ४१६ में साधारण नियम दिया हुआ है, किन्तु धवल पु. १६ पृ. ४२० तथा गो. क. गा. ४२४ में पुरुषवेद के लिए विशेष नियम है जो सामान्य नियम से बाधित नहीं हो सकता। अतः नपुसकवेद आरूढ़ या स्त्रीवेद प्रारूढ़ चारित्रमोहक्षपक के पुरुषवेद के बंध विच्छेद के पश्चात् पुरुषवेद का तथा पुरुषवेदारूढक्षपक के एक समय कम दो आवलि नबकबंध पुरुषवेद का अध.प्रवृत्तसंक्रमण होता है गुणसंक्रमण नहीं होता।
-जं. ग. 3-1-63/IX/ पन्नालाल
संक्रमण
शंका-अपूर्वकरण में गुणसंक्रमण होने का नियम है फिर दर्शनमोह के उपशम विधान के समय अपूर्वकरण में गुणसंक्रमण क्यों नहीं होता?
समाधान-ऐसी वस्तुस्थिति अर्थात् स्वभाव है। स्वभाव तर्क का विषय नहीं है। अग्नि उष्ण क्यों ? इसका यही उत्तर हो सकता है कि ऐसा स्वभाव है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई उत्तर नहीं है ।
अथवा, भिन्न-भिन्न अवसरों पर होने वाले अपूर्वकरणों में लक्षण की समानता होने पर भी, भिन्न-भिन्न कर्मों के विरोधी होने से भेद को भी प्राप्त हुए जीव परिणामों के पृथक्-पृथक् कार्य के उत्पादन में कोई विरोध नहीं है । ( १० ख० ६।२८९)
-जें. ग./.............. तीर्थकर प्रकृति का उदय से पूर्व स्तिबुक संक्रमण
शंका-तीर्थकरप्रकृति का बंध अंतःकोटाकोटीसागर से अधिक नहीं पड़ता। अन्तःकोटाकोटीसागर की स्थिति में अबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त है। किंतु तीर्थकरप्रकृति का उदय अन्तर्मुहूर्त पश्चात् प्रारम्भ नहीं होकर बहुत काल पश्चात अर्थात तीसरे भव में होता है। तीर्थंकरप्रकृति की अबाधा का ठीक नियम क्या है?
समाधान-जिन कर्मों की स्थिति का बन्ध अन्तःकोटाकोटीसागर या इससे भी कम होता है उनकी स्थिति का आबाधाकाल अन्तमूहर्त से अधिक नहीं होता। तीर्थंकरप्रकृति का बंध सम्यग्दष्टि के ही होता है। सम्यग्दृष्टि के अन्तःकोटाकोटीसागरोपम से अधिक स्थितिबन्ध नहीं होता। अतः तीर्थकरप्रकृति का बन्ध भी अन्तःकोटाकोटीसागरो. पमप्रमाण है और आबाधा अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है। (धवल पुस्तक ६ पृ० १७४-१७७ तथा पृ० १९७-१९८ ) द्रव्य, क्षेत्र. काल. भव और भावका निमित्त पाकर कर्मका उदय-विपाक होता है अर्थात स्वमुख उदय होता है (कपाल
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