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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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सुत पृ० ४६५, ४९८ ) । तेरहवें गुणस्थान से पूर्व तीर्थंकरप्रकृति के स्वमुखउदय के लिये द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव नहीं मिलते। अतः तेरहवें गुणस्थान से पूर्व तीर्थंकरप्रकृति के जो निषेक उदय में आते हैं तो उनका स्तिबुकसंक्रमण द्वारा परमुखउदय होता है । ( ज. ध. पु. ३ पृ. २४४, २४५, २१५ ) आबाधाकाल पूर्ण हो जाने के कारण तीर्थंकरप्रकृति के जो निषेक उदय म आने के योग्य होते हैं उन निषेकों का ( तेरहवे गुणस्थान से पूर्व ) नामकर्म की अन्य प्रकृतिरूप स्तिबुकसंक्रमण होकर परप्रकृतिरूप उदय होता रहता है ।
जै. ग. 9-5-63 / IX / प्रो. म. ला. जैन
अप्रशस्त उपशम और स्तिबुक संक्रम में अन्तर
शंका- अनन्तानुबन्धी के अप्रशस्तउपशम का क्या लक्षण है ? अप्रशस्तउपशम और स्तिबुकसंक्रमण में क्या अन्तर है ? उपशमसम्यक्त्व में मिध्यात्व का जिस प्रकार उपशम रहता है क्या उसी प्रकार अनन्तानुबन्धी का भी उपशम रहता है ? या उसका स्वमुख उदय न होकर परमुख उदय होता है, इसलिये उसका उपशम कहा जाता है ?
समाधान --- उपशमसम्यक्त्व के काल में जो निषेक उदय होने योग्य होते हैं उनमें दर्शन मोहनीय कर्म का द्रव्य नहीं होता, क्योंकि अन्तरकरण के द्वारा दर्शनमोहनीय का अन्तर कर दिया जाता है । इस अन्तर के पश्चात् द्वितीय स्थिति में स्थित दर्शनमोहनीय के द्रव्य का उपशम हो जाने से वह द्रव्य उदीरणा होकर उपशमसम्यक्त्व के काल में उदय नहीं आता है, किंतु अनन्तानुबन्धीकर्म का अंतर नहीं होता । उपशमसम्यक्त्व के काल में अनंतानुबन्धकषाय का द्रव्य प्रतिसमय स्तिबुकसंक्रमण के द्वारा परप्रकृतिरूप संक्रमण होकर परमुखरूप उदय में आता है । वर्तमान समय से ऊपर के निषेकों में श्रनन्तानुबन्धी का द्रव्य उपशम रहता, अर्थात् उदीरणा होकर वर्तमान समय में उदय में नहीं आता । 'उपशम' मोहनीयकर्म का ही होता है, किंतु स्तिबुकसंक्रमण ज्ञानावरणादि सात कर्मों में होता है, आयुकर्म में स्तिबुकसंक्रमण नहीं होता । आयु के अतिरिक्त शेष कर्मों का परमुख उदय सम्भव है, किन्तु 'उपशम' मात्र मोहनीय कर्म का होता है ।
- जै. ग. 21-11-66 / IX / र. ला. जैन
तिबुक संक्रमण का स्वरूप
शंका- क्या उदयावली के अन्दर स्तिबुकसंक्रमण होता है या उदयावली के ऊपर प्रथम निषेक का परप्रकृतिरूप संक्रमण होकर उदयावली में प्रवेश करता है ?
समाधान – उदयावली के अन्दर ही स्तिबुकसंक्रमण होता है उदयावली से बाह्य स्तिबुकसंक्रमण नहीं होता है । उदयरूप निषेक के अनन्तर ऊपर के निषेक में अनुदयरूप प्रकृति के द्रव्य का उदयप्रकृतिरूप संक्रमण हो जाना स्तिबुकसंक्रमण है ।
जैसे नारकी के चार गतियों में से नरकगति का तो उदय पाया जाता है, अन्य तीन गतियों का द्रव्य प्रतिसमय स्तिबुकसंक्रमण द्वारा नरकगतिरूप संक्रमण होकर उदय में आ रहा है । कहा भी है
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पिंडवगण ना उदय संगया तीए अणुवयगयाओ ।
संकामिऊण वेयइ जं एसो
franiकामो ॥
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