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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
अर्थ-चार वर्ण, चार रस, एक गन्ध, सात स्पर्श, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, पाँच बन्धन, पाँच संघात, ये इस प्रकार २६ नामकर्म की और २ मोहनीयकर्म की कुल २८ प्रकृतियां बंध के अयोग्य हैं।
देहे अविणाभावी बंधणसंघार इदि अबंधवया। वण्ण चउक्केऽभिरणे गहिदे चत्तारि बंधुदये ॥३४॥ (गो.क.)
अर्थ-शरीर नामकर्म के साथ बंधन और संघात विनाभावी है। इस कारण पांच बंधन और पांच संघात में दश प्रकतियां बंध और उदय अवस्था में अभेद विवक्षा में जूदी नहीं गिनी जाती, शरीर नामप्रकृति में ही गभित हो जाती हैं। स्पर्श, रस, गंध, वर्ण इन चारों में इनके २० भेद शामिल हो जाते हैं। इस कारण अभेद की अपेक्षा से बंध व उदय अवस्था में इनके २० भेद की बजाय ४ गिने जाते हैं।
इन दो गाथानों से इतना स्पष्ट हो जाता है कि पांचसंघात और पांचबन्धन ये दस प्रकतियां, बंधव उदय की विवक्षा में, शरीर नामकर्म में गर्भित करके इनको बंध व उदय प्रकृतियों में नहीं गिनी गई। सत्त्व की विवक्षा में पांचसंघात और पाँचबंधन को शरीर नामकर्म में शामिल नहीं किया गया है, इसीलिये नामकर्म के प्रकति आदि सत्त्वस्थान बतलाये हैं। वे स्थान इसप्रकार हैं
विदुइगिणउदी उदी अडचउदोअहियसीदि सोदिय। उण्णासीदत्तरि सत्तत्तरि बस य व सत्ता ॥६.९॥ सव्वं तिस्थाहारुभऊणं सुरणिरयणर दुचारिदुगे। उम्वेल्लिदे हदे चउ तेरे जोगिस्स सणवयं ॥६१०॥ ( गो.क.)
अर्थ-९३, ६२,६१,१०,८८,८४, ८२,८०,७६, ७८, ७७, १०,९ प्रकृतिरूप में नामकर्म के सत्त्व स्थान १३ हैं। नामकर्म की सर्व प्रकृतिरूप ९३ का स्थान है। उनमें से तीर्थकर घटाने से ९२ का स्थान, आहारकयुगल घटाने से ६१ का, तीनों आहारकढिक और तीर्थकर घटाने से ६० का स्थान होता है। उस ६० के स्थान में देवयतिदिक की उलना होने से ८८ का स्थान होता है। नरकगतिद्विक और वैक्रियिकद्विक की उद्वेलना होने पर ८४ का स्थान होता है। मनुष्यद्विक की उद्वेलना हो जाने पर ८२ का सत्त्वस्थान होता है। शेष सत्त्वस्थान क्षपक श्रेणी में सम्भव है।
इसीप्रकार ज्ञानपीठ से प्रकाशित पंचसंग्रह पृ० ३८५.३८९ पर गाथा २०८-२१९ में कथन है। तथा श्री अमितगति पंचसंग्रह पृ० ४६४-४६७ पर श्लोक २२१-२३० में कथन है।
हारसुसम्म मिस्सं सुरदुग गरयचउक्कमणुकमसो।
उच्चागोदं मणुदुगमुवेल्लिज्जति जीवेहिं ॥३५०॥ अर्थ-प्राहारकद्विक, सम्यक्त्वप्रकृति, मिश्रमोहनी, देवगति का युगल, नरकगति प्रादि ४ ( नरकद्विक वैक्रियिकद्विक ), ऊंच गोत्र, मनुष्यगतिद्विक ये १३ उद्वेलन प्रकृतियां हैं ।
यहाँ पर यह बात विचारणीय है कि पाहारकशरीर और आहारकशरीरआंगोपांग तथा वैक्रियिकशरीर व वैक्रियिकशरीरांगोपांग का तो उद्वेलन कहा, किंतू आहारकसंघात व आहारकशरीरबंधन, तथा वैक्रियिकसंघात वैक्रियिकशरीरबंधन इन प्रकृतियों का उद्वेलन क्यों नहीं कहा है? जिसने आहारकशरीर का बंध नहीं किया उसके
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