________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ४६५
२७ प्रकृति सत्त्वस्थान सम्यक्त्वप्रकृति की उद्व ेलना से होता है । तेईस प्रकृतिक सत्त्वस्थान मिथ्यात्व के क्षय से होता है उसके पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति के क्षय से २२ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । उसके पश्चात् सम्यक्त्वप्रकृति के क्षप से २१ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है ।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि प्रथम मिथ्यात्व का क्षय होता है । जो सर्वघाती है। उसके पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति का क्षय होता है जो मिश्ररूप है । उसके पश्चात् सम्यक्त्वप्रकृति का क्षय होता है जो देशघातीरूप है ।
-- जै. ग. 9-4-70 /VI / रो. ला. मित्तल
नरक में २६-३० प्रकृतिक बन्धस्थान में ε१ प्रकृतिक सत्त्वस्थान
शंका- दूसरी, तीसरी पृथिवी के नारकियों के २९ प्रकृति का बन्ध करते समय नामकर्म की ९१ प्रकृति का सत्त्व सम्भव है, फिर पंचसंग्रह पृ. ४०१ पंक्ति ७ पर नामकर्म की २९ प्रकृति का बंध करने वाले के ९१ प्रकृति का सत्त्व क्यों नहीं कहा ?
समाधान - दूसरे, तीसरे नरक में नामकर्म की २९ प्रकृति का बंध करनेवाले मिथ्यादृष्टि नारकी के ६१ प्रकृति का सत्त्व सम्भव है जैसा कि पंचसंग्रह पृ. ४०१ पंक्ति ३ व ४ में कहा है। किंतु पंक्ति सात में दूसरे, तीसरे नरक के असंयत सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा कथन है । दूसरी, तीसरी पृथिवी के जिस नारकी के ९१ का सत्त्व होगा वह असंयतसम्यग्दृष्टि अवस्था में तीर्थंकर प्रकृति का अवश्य बन्ध करेगा अतः उसके २६ प्रकृति का बंध न होकर नामकर्म की ३० प्रकृति का बंध होगा। दूसरे, तीसरे नरक का सम्यग्दृष्टिनारकी यदि नामकर्म की २९ प्रकृतियों का बंध करता है तो वह तीर्थंकरप्रकृति का बंधक नहीं है । जो सम्यग्दृष्टिनारकी तीर्थंकरप्रकृति का बंध नहीं करता है उसके तीर्थंकर प्रकृति का सत्त्व संभव न होने से ६१ का सत्व नहीं हो सकता ।
- जै. ग. 22-4-76 / ज. ला. जैन, भीण्डर
८ प्रकृतिक सवस्थान क्यों नहीं कहा ? एवं वैक्रियिक शरीर की उद्वेलना हो जाने पर वैक्रियिक बन्धन व संघात का सत्त्व रहता है
शंका- नामकर्म के सत्व स्थानों में एक स्थान आहारकशरीर और आहारकआंगोपांग के सत्व से रहित भी है वहां आहारक बंधन और आहारक संघात के सत्व का अभाव क्यों नहीं बतलाया ? जिस जीव ने आहारकद्विक का बंध नहीं किया उसके आहारक बंधन और आहारकसंघात पाया जा सकता है क्या ? यदि पाये जाते हैं तो कैसे ?
समाधान - नामकर्म की ९३ प्रकृतियाँ हैं । उनमें से पाँचबन्धन और पांचसंघात और स्पर्श, रस, गन्ध, व की १६ प्रकृतियाँ कुल २६ प्रकृतियाँ बन्धके प्रयोग्य हैं । ६७ प्रकृति बन्धयोग्य हैं । कहा भी है
Jain Education International
वण्ण-रस-गंध-फासा च च इगि सत्त सम्ममिच्छत ।
होंति अबंधा बंधण पण पण संघाय सम्मत्तं ॥ ६॥ ( पंचसंग्रह ज्ञानपीठ पृ० ४८ )
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org