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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
तथा समस्त आयुस्थिति का सत्ताईसवाँ भाग शेषरहनेपर पुनरपि आयुबन्ध के योग्य होते हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर जो त्रिभाग शेष रहता जाता है उसका त्रिभाग शेष रहनेपर यहां आठवें-अपकर्ष के प्राप्त होने तक आयुबन्ध के योग्य होते हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । परन्तु विभाग के शेष रहनेपर आयु नियम से बँधी है, ऐसा एकान्त नहीं है, किन्तु उससमय जीव आयुबन्ध के योग्य होते हैं, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । जो निरुपक्रमायुष्क जीव हैं वे अपनी भुज्यमानायु में छहमाह शेष रहनेपर आयुबन्ध के योग्य होते हैं । यहाँ भी इसी प्रकार छहमाह में माठ-पपकर्षों को कहना चाहिये।" ( धवल पुस्तक १० पृ० २३३-२३४ )।
इस पागम प्रमाण से जाना जाता है कि प्रायुकर्म का बन्ध प्रत्येक समय नहीं होता है। अतः प्रत्येक समय सातकर्मों का बन्ध होता है । और आयुबन्ध के समय एक-अन्तर्मुहूतं तक पाठकर्मों का बन्ध होता है उसके पश्चात् पुनः सातकर्मों का बन्ध होने लगता है। आयुकर्म का बन्ध तीसरे गुणस्थान के अतिरिक्त सातवेंगुणस्थान तक होता है । दसवेंगुणस्थान में मोहनीयकर्म का भी बन्ध नहीं होता, छहकर्मों का ही बन्ध होता है। ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें इन तीन गुणस्थानों में मात्र सातावेदनीय का एकसमय की स्थितिवाला बन्ध होता है। चौदहवें में योग का अभाव हो जाने से बन्ध का भी अभाव हो जाता है।
-जे.ग. 20-6-63/1X.X/प्र. ला.
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उदय व सत्त्व से रहित प्रकृतियों का भी बन्ध सम्भव है शंका-जो कर्म उदय व सत्ता में नहीं हैं क्या उन कर्म प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता ?
समाधान-कर्मबन्ध का कारण मोहनीयकर्म के उदय से होनेवाले औदयिकभाव हैं। धवल पु० ७ १०९ पर बताया है कि मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग ( कषायसहित योग) बन्ध के कारण हैं।
"मिच्छत्ताविरवी वि य कसाय य आसवा होति ।" ( धवल पु० ७ पृ०९)
"मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगावन्ध हेतवः।" ( तत्त्वार्थ सूत्र ८/१ )
अर्थात-मिथ्यादर्शन, अविरत, प्रमाद, कषाय और योग बन्ध के कारण हैं।
अतः इन भावों के होते हुए बन्ध होता है। बन्ध के लिये अन्य कर्मों के उदय या सत्त्व की अपेक्षा नहीं है जैसे मनुष्य व तिर्यंचों के देवायु या नरकायु का सत्त्व व उदय न होते हुए भी बन्ध होता है। तीर्थकरप्रकृति का जदय व सत्त्व नहीं होने पर भी केवली के पादमूल में बंध प्रारम्भ होता है। जिनके आहारकशरीर व आहारकगोपांग के सस्व व उदय नहीं है वे भी आहारकद्विक का बंध करते हुए पाये जाते हैं। जिन्होंने देवगतिद्रिक. नरकगतिदिक. वैक्रियिकद्विक, मनुष्य द्विक, उच्चगोत्र की उद्वेलना कर सत्त्व का नाश कर दिया है, ऐसे जीव भी अग्नि व वायुकायिक से निकलकर इनका उदय व सत्त्व न होते हुए भी देवगतिद्विक आदि का बंध करते हैं। अनन्तानबंधी की विसंयोजना करके मिथ्यात्वगुणस्थान में जानेवाला अनन्तानुबंधीचतुष्क का बंध करता है।
-जं. ग. 12-10-67/VII/ प्रा. ला. जैन
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