________________
ध्यक्तित्व और कृतित्व ].
[ ४३५
समाधान-गोम्मटसार कर्मकांड बड़ी टीका पृ. ६०३ पर बदायुष्क-जीव उपशांतकषाय से मरकर देवों में उत्पन्न होनेवाले के एक कर्म से कर्म बंधरूप भुजाकार का निषेध किया है. क्योंकि देवों में मरण से छहमाह पूर्व प्रायु बंध संभवे हैं, किन्तु एक से सातवाला बंध भुजाकार का निषेध नहीं है। उपशांतकषाय-गुणस्थान में जिसके एक वेदनीयकर्म का बंध हो रहा था मरण करके देवों में उत्पन्न होने के प्रथमसमय में ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र, अन्तराय इन सात कर्मों को युगपत् बाँधने लगता है, अतः उसके एक से सातवाला बंध भुजाकार होता है । इसके निषेध पृ० ६०३ पर नहीं है।
-जं. ग. 25-7-66/IX/ र. ला. जन बंध के पूर्व भी कार्मणवर्गणा के पाठ भेद शंका-कार्मणवर्गणाएं बंध के पहले भी क्या ज्ञानावरणावि आठप्रकार की होती हैं या बंध के पश्चात् ? . समाधान-बंध से पूर्व भी कार्मणवर्गणा पाठप्रकार की होती हैं । श्री वीरसेन माचार्य ने कहा भी है
"ज्ञानावरणीयकर्म के योग्य जो द्रव्य हैं वे ही मिथ्यात्वआदि प्रत्ययों के कारण पाँच ज्ञानावरणीयरूप से परिणमन करते हैं, अन्यरूप से वे परिणमन नहीं करते, क्योंकि वे अन्य के अयोग्य होते हैं। इसी प्रकार सब कर्मों के विषय में कहना चाहिये, अन्यथा ज्ञानावरणीय के योग्य जो द्रव्य हैं उन्हें ग्रहण कर मिथ्यात्वादि प्रत्ययवश ज्ञानावरणीयरूप से परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं। यह सूत्र नहीं बन सकता है। यदि ऐसा है तो कार्मणवर्गणाएँ माठ हैं, ऐसा कथन क्यों नहीं किया है ? नहीं किया, क्योंकि अन्तर का अभाव होने से उस-प्रकार का उपदेश नहीं पाया जाता है। ये पाठवर्गणाए पृथक्-पृथक् नहीं रहती हैं, किन्तु मिश्रित होकर रहती हैं। आयुकर्म का भाग स्तोक है, नाम और गोत्रकर्म का भाग उससे अधिक है, इस गाथा से जाना जाता है कि ये वर्गणाएँ मिश्रित होकर रहती हैं।" (धवल पु० १४ पृ० ५५३ )।
-जं. ग. 7-8-67/VII/ र. ला. जैन गुणस्थानों में प्रतिसमय बध्यमान मूल कर्मों की संख्या शंका-क्या आठों कर्म प्रत्येक समय बंधते हैं ? यदि नहीं तो क्यों ?
समाधान-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये आठप्रकार के कर्म हैं। इनमें से आयुकर्म के अतिरिक्त शेष सातकर्मों का नौवेंगुणस्थान तक निरंतर-बध होता रहता है, किन्तु मायुकर्म का एकभव में आठ बार से अधिक बन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि अधिक से अधिक आठ बार ही ऐसी योग्यता होती है जिसमें प्रायुकर्म का बंध हो सकता है। कहा भी है-"जो जीव सोपक्रमायुष्क हैं, ( जिनकी प्रकालमत्य हो सकती है ), वे अपनी-अपनी भुज्यमानआयु के दो त्रिभाग बीत जाने पर वहाँ से लेकर प्रसंक्षेपानाकाल तक परभवसम्बन्धी आयु को बाँधने योग्य होते हैं। उनमें आयुबन्धकाल के भीतर कितने ही जीव आठबार, कितने ही सातबार, कितने ही छहबार, कितने ही पाँचबार, कितने ही चारबार, कितने ही तीनबार, कितने ही दोबार, और कितने ही एकबार आयुबन्ध के योग्य परिणामों से परिणत होते हैं, क्योंकि ऐसा स्वभाव है। उसमें भी जिन जीवों ने तृतीय विभाग के प्रथमसमय में परभवसम्बन्धी प्रायुका बंध प्रारम्भ किया है वे अन्तमहतं आयकर्म के बम्प को समाप्त कर फिर समस्त आयु के नौवेंभाग के शेष रहने पर फिर से आयुबन्ध के योग्य होते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org