________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ४३७ प्रायोग्यलग्धि एवं प्रथमसम्यक्त्व के स्थितिबन्ध में तुलना शंका-प्रथमोपशमसम्यक्त्व से पूर्व पांच लब्धियां होती हैं । चौथी प्रायोग्यलन्धि में ३४ बंधापसरण होते हैं। उनमें जो स्थितिबंध घट जाता है, क्या प्रथमोपशमसम्यक्त्व होने पर उतना ही स्थितिबंध होता है या होनाधिक?
समाधान-प्रधःकरण, अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरण इन तीन प्रकार की करणलब्धि में परिणामों की विशुद्धि के कारण अनेकों बंधापसरण होते हैं। अतः प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्ति के समय जो स्थितिबंध होता है वह प्रायोग्यलब्धि में स्थितिबंध की अपेक्षा संख्यातगुणाहीन होता है। कहा भी है
"अधापवत्त करणपढमसमय द्विविबंधादो चरिमसमयदिदिबंधो संखेज्जगुणहीणो । अपुष्वकरणस्स पढमसमयद्विविसंत-दिदिबंधेहितो अपुष्वकरणस्स चरिमसमयटिदिसंतटिदिबंधाणं वोहत्तं संखेज्जगुणहीणं होवि । तवणंतर उव. रिमसमए अणियद्धिकरणं पारभवि । ता चेव अण्णो टिदिखंडओ अण्णो अणुमागखंडओ, अण्णो द्विविबंधो च माढतो।" (बवल पु०६)
अर्थ-अधःप्रवृत्तकरणके प्रथमसमयसम्बन्धी स्थितिबंध से उसीका अन्तिमसमयसंबंधी स्थितिबंध संख्यातगुणहीन होता है । अपूर्वकरणके प्रथमसमयसम्बन्धी स्थितिबंध से अपूर्णकरणके अन्तिमसमयसम्बन्धी स्थितिबंध संख्यातगुणाहीन होता है। अपूर्वकरणका काल समाप्त होनेके अनन्तर आये के समय में अनिवृत्तिकरण को प्रारम्भ करता है। उसीसमय में ही अन्य स्थितिबंध को प्रारंभ करता है।
इसप्रकार प्रायोग्यलब्धि के समय जो कर्म-स्थिति-बंध होता है उससे संख्यात गुणाहीन कर्मस्थितिबंध प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्ति के समय होता है।
-णे. ग. 28-8-69/VII/ मी जैन घेत्यालय, रोहतक विभिन्न प्रकृतियों में विभिन्न स्थिति-अनुभाग बन्ध के कारण
शंका-शुभपरिणामों से सर्व शुभप्रकृतियों में स्थिति व अनुभाग अधिक बंधता होगा और अशुभपरिणामों से अयुभप्रकृतियों में स्थिति व अनुभाग अधिक पड़ता होगा?
समाधान-संक्लेशपरिणामों से तीनआयु के अतिरिक्त शेष समस्त-प्रशस्त-अप्रशस्त कर्मों में स्थितिबंध अधिक होता है, किन्तु देवायु मनुष्यायु तियंचायु इनमें विशुद्धपरिणामों से अधिकस्थिति बंधती है। कहा भी है
सध्वाढिवीणमुक्कस्सओ दु उक्कस्ससंकिलेसेण ।
विवरीवेण जहण्णो आउगतियवज्जियाणं तु ॥१३४॥ (गो० क०) तियंच मनुष्य-देवायु इन तीनआयु के बिना अन्य सब ११७ प्रकृतियों का उत्कृष्ट-स्थितिबंध उत्कृष्टसंक्लेशपरिणामों से होता है और जघन्यस्थितिबंध उत्कृष्ट विशुद्धपरिणामों से होता है। तीनआयु प्रकृतियों के स्थितिबंध का क्रम इससे विपरीत है अर्थात् विशुद्धपरिणामों से उत्कृष्टस्थिति बंध होता है तथा जघन्यस्थितिबंध संपलेशपरिणामों से होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org