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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : "मिच्छत्तस्स बंधोदयाणं वोच्छवं काढूण तवणंतरउवरिमसमए अंतरं पविसिय पढमसमयउवसमसम्माइट्ठी जादो । तम्हि चेव समए विदियट्रिदीए द्विवमिच्छत्तस्स पदेसग्गं मिच्छत्त-सम्मत्तसम्मामिच्छत्तसहवेण परिणमदि।"
(जयधवल पु०२ १० ८३)
मिथ्यात्व के बंध और उदय की व्युच्छित्तिकरके उसके अनन्तरवर्ती ऊपर के समय में अन्तर में प्रवेश करके प्रथम समयवर्ती उपशम सम्यग्दृष्टि हो जाता है। जिस समय में उपशम सम्यग्दृष्टि हुआ उसी समय दूसरी स्थिति में स्थित मिथ्यात्व के प्रदेश समूह को मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वरूप से परिणमाता है अर्थात् तीनटुकड़े कर देता है।
इस दूसरे मत के अनुसार मिथ्यात्व के तीन खण्ड प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न होने के प्रथम समय में होते हैं अतः अनादिमिथ्यादृष्टि के पाँच प्रकृतियों के उपशम से ही प्रथमोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न होगा। सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में इस मत की विवक्षा नहीं है।
"एगो अणादियमिच्छादिट्ठी तिणि वि करणाणि काऊण पढमसम्मत्त पडिवण्णो । तत्थ सम्म पडिवण्ण पढमसमए संसारमणतं सम्मत्तगुरणेण छेत्त ण पुणो सो संसारो तेण अद्धपोग्गलपरियट्टमेतो कदो।"
(जयधवल पु० २ पृ० ३९१) कोई एक अनादि मिथ्याडष्टि जीव तीनों ही करणों को करके प्रथमोपशमसम्यक्त्व को प्राप्त हआ। सम्यक्त्वप्राप्ति के प्रथमसमय में ही सम्यक्त्वगुण के द्वारा अनन्त संसार का छेदनकर संसार को अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र कर देता है।
"एक्केण अणादियमिच्छाविट्ठिणा तिण्णि करणाणि कादूण उवसमसम्मत्त पडिवण्णपढमसमए अणंतो ससारो छिण्णो अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तो कदो।" ( धवल पु० ५ पृ० ११, १२, १४, १५, १९)
"एगो अणावियमिच्छादिट्ठी अपरित्तसंसारो अधापवत्तकरणं अपुवकरणं अणियट्टिकरणमिवि एदाणि तिष्णि करणाणि कादूण सम्मत्त गहिदपढमसमए चेव सम्मत्तगुरणेण पुग्विल्लो अपरित्तो संसारो ओहट्टिदूण परित्तो पोग्गल. परियट्टस्स अद्धमेत्तो होदूण उक्कस्सेण चिट्ठदि ।" ( धवल पु० ४ पृ० ३३५ व ४७९ )
एक अनादिमिथ्यादृष्टि अपरीत संसारी ( अमर्यादित अथवा अनन्त संसारी ) जीव अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीनों ही करणों को करके प्रथमोपशमसम्यक्त्व ग्रहण के प्रथमसमय में ही सम्यक्त्वगुण के द्वारा पूर्ववर्ती अपरीत ( अनन्त ) संसारीपने को छेदकर परीतसंसारी होकर अधिक से अधिक अर्घपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण काल तक ही संसार में ठहरता है।
___ "असंयतसम्यग्दृष्टेरनन्त संसारस्य क्षीयमाणत्वसिद्धः।" ( श्लोकवातिक )
असंयतसम्यग्दृष्टि के अनन्तसंसार का क्षय हो जाता है।
इस दूसरे मत के अनुसार 'अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र काल शेष रहने पर सम्यग्दर्शन की योग्यता होती है' ऐसा नहीं माना गया है, क्योंकि सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के प्रथमसमय में अनन्तसंसार का क्षय होता है उससे पूर्व तो अनन्त (अपरीत) संसारी था, क्योंकि सम्यग्दर्शन के द्वारा ही अनन्तसंसार क्षीण होकर अर्घपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण रह जाता है।
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