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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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"कर्माविष्ट आत्मा भव्यः कालेऽद्ध पुदगल-परिवर्तनाख्येऽवशिष्टे प्रथमसम्यक्त्वग्रहणस्य योग्यो भवति नाधिके इति । इयमेका काललब्धिः । अपरा कर्म स्थितिका काललन्धिः" इन शब्दों द्वारा यह बतलाया है कर्मयुक्त भव्य प्रात्मा अर्धपुदगलपरिवर्तन नाम के काल के शेष रहने पर प्रथमोपशम सम्यक्त्व ग्रहण करने के योग्य होता है, इससे अधिककाल के शेष रहनेपर नहीं होता यह एक काललब्धि है। दूसरी काललब्धि का संबंध कर्मस्थिति से है।
दूसरा मत यह है कि प्रथमापशमसम्यक्त्व के उत्पन्न होने के प्रथमसमय में मिथ्यात्वकर्म द्रव्य के तीनटुकड़े करता है और अनन्तसंसार को काटकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनकालप्रमाण कर देता है अर्थात् सान्त कर देता है ।
श्री वीरसेन आचार्य ने इन दोनों मतों का प्रयोग किया है। जैसे- . "दसणमोहणीयस्स अपुष्वादिकरणेहिं दलियस्स तिविहत्तवलंभा।" ( धवल पु० ६ पृ० ३८ )
अर्थात्-अपूर्वकरण आदि परिणामों के द्वारा दलकर दर्शन मोहनीय ( मिथ्यात्व ) कर्म के तीन टुकड़े कर दिये जाते हैं। "एत्थ वि अणियट्टिकरणसहिबजीव संबंधेण एगविहस्स मोहणीयस्स तधाविहभावाविरोहादो।"
( धवल पु० १३ पृ० ३५८ ) अनिवृत्तिकरण सहित जीव के सम्बन्ध से एक प्रकार के दर्शनमोहनीयकर्म के तीनप्रकार (सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, मिथ्यात्व ) परिणमन होने में कोई विरोध नहीं है।
इस प्रकार प्रथम मत के अनुसार करणलब्धि में दर्शनमोहनीय कर्म के ( सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और मिथ्यात्व ) तीन टुकड़े हो जाने पर सात प्रकृतियों के उपशम से अनादिमिथ्यादृष्टि के प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न होता है । इसी के अनुसार सर्वार्थ सिद्धि में सातप्रकृतियों के उपशम से प्रथमोपशमसम्यक्त्व की उत्पत्ति का कथन किया गया है।
"अणावियमिच्छाइद्विस्स तिण्णि वि करणाणि काऊण अद्धपोग्गलपरियट्टस्सादिसमए सम्मत्तं संजमं ध जुगवं घेत्तण।" ( धवल पु० ७ पृ० २१५ )
"अणादियमिच्छाइटिस्स तिणि वि करणाणि कादूण अद्धपोग्गलपरियट्टस्प्त आदिसमए पढमसम्म सजमं च जुगवं घेत्तण।" ( धवल पु० ७ पृ० २२४ )
यहाँ पर यह बतलाया गया है कि अनादिमिथ्यादृष्टि तीनकरणों ( करण लब्धि ) के द्वारा अर्धपुद्गल. परिवर्तनकाल करके अर्घपुद्गलपरिवर्तनके प्रथमसमय में प्रथमोपशमसम्यक्त्व को ग्रहण करता है ।
इस प्रथम मत के अनुसार ही सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल के शेष रहने पर प्रथमोपशमसम्यक्त्व की योग्यता होती है।
दूसरे मत के अनुसार श्री वीरसेनआचार्य ने इस प्रकार कथन किया है
"पढमसम्मत्तप्पडिवण्णपढमसमए चेव तिण्णि कम्मसे उपादेवि।"धवल प०६पृ०२३५)
प्रथमोपशमसम्यक्त्व के प्राप्त होने के प्रथमसमय में ही मिथ्यात्वरूप एककर्म के तीनकाश अर्थात् भेद या खंड उत्पन्न करता है।
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