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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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इस दूसरे मत के अनुसार उपासकाध्ययन में सम्यक्त्व के माहात्म्यमें लिखा है कि सम्यक्त्व संसार को सांत कर देता है। यहां पर प्रथम मत की विवक्षा नहीं है।
अनन्तसंसार का क्षय होकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल स्वयं नहीं रह जाता, किन्तु करणलब्धि द्वारा या सम्यग्दर्शन द्वारा अनन्तसंसार का क्षय करके अघंपुद्गलपरिवर्तनकाल किया जाता है।
-जै.ग.5-6-75/VI/भूषणलाल
(१) केवली व चतुर्थ गुणस्थानवर्ती के सम्यक्त्व में भेद (२) सम्यक्त्व के असंख्य भेद
शंका-धवल पु० ७ १० १०७ सूत्र ६९ की टीका में लिखा है-'इन तीनों सम्यक्त्वों का जो एकत्व है उसीका नाम सम्यग्दृष्टि है' अर्थात् किसी भी सम्यग्दृष्टि में वह एकत्व तो रहना चाहिये। तब उस एकत्व की अपेक्षा किसी भी सम्यग्दृष्टि में अन्तर नहीं होना चाहिये । ऐसा होने पर केवली के सम्यग्दर्शन और चौथेगुणस्थानवाले के सम्यग्दर्शन में भी कोई अन्तर नहीं होना चाहिये । यदि ऐसा है तो फिर तेरहवेंगुणस्थान के समान चौथे गुणस्थान में भी शुद्धोपयोग या निश्चयसम्यग्दर्शन का प्ररूपण करना चाहिये?
समाधान-पदार्थ सामान्यविशेषात्मक है । श्री माणिक्यनन्दि आचार्य ने कहा भी है"सामान्य विशेषात्मकपदार्थो विषयः ।" ४१ ( परीक्षामुख ) अर्थ-सामान्य-विशेषात्मक पदार्थ प्रमाण ( ज्ञान ) का विषय है । सम्यग्दर्शन भी पदार्थ है, प्रमाण का विषय है अतः वह भी सामान्य-विशेषात्मक है ।
"सामान्यं द्वधा तिर्यगूर्वताभेदात् ॥३॥ सदृशपरिणामस्तिर्यक्, खण्डमुण्डादिषु गोत्ववतु ॥४॥ परापर विवर्तव्यापि द्रव्यमूर्खतामुदिव स्थासादिषु ॥५॥ विशेषश्च ॥६॥ पर्याय व्यतिरेक-भेदात् ॥७॥ एकस्मिन् द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामाः पर्याया आत्मनि हर्षविषावादिवत् ॥८॥ अर्थानान्तरगतो विसदृशपरिणामो व्यतिरेको गोमहिपादिवतु ॥९॥ ( परीक्षामुख अ० ४)
अर्थ-तियंक्सामान्य और ऊर्ध्वतासामान्य के भेद से सामान्य दो प्रकार का है ॥३॥ सदृश परिणाम को तिर्यक् सामान्य परिणाम कहते हैं, जैसे खन्डी मुन्डी आदि गायों में गोपना सामान्य रूप से रहता है ॥४॥ पूर्व और उत्तर पर्यायों में रहनेवाले द्रव्य को ऊर्ध्वतासामान्य कहते हैं। जैसे स्थास, कोश, कुशूल आदि घट की पर्यायों में मिट्री रहती है ॥५१विशेष भी दो प्रकार का है ।।६।। पर्याय और व्यतिरेक के भेद से विशेष दो प्रकार का है ।। एकद्रव्य में क्रमसे होनेवाले परिणाम को पर्याय कहते हैं। जैसे आत्मा में हर्ष-विषाद आदि परिणाम क्रमसे होते हैं, वे ही पर्याय हैं ।।८। एक पदार्थ की अपेक्षा अन्यपदार्थ में रहनेवाले विसदृश परिणाम को व्यतिरेक कहते हैं। जैसे गाय-भैंस प्रादि में विलक्षणपना पाया जाता है ॥९॥
इस उपर्युक्त आर्ष-वाक्य मे तिर्यक्सामान्य का कथन करते हुए सूत्र ४ में कहा है कि 'सदृशपरिणाम को तिर्यक्सामान्य कहते हैं जैसे खण्डी, मुण्डी आदि गायों में गोपना सामान्य है, किन्तु सूत्र ९ में व्यतिरेक विशेष का कथन करते हुए कहा है कि 'एक पदार्थ की अपेक्षा अन्य पदार्थ में रहने वाले सदृश परिणाम को व्यतिरेक कहते हैं।'
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