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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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साधारण जनता को इनका पठनपाठन सरल लगता है अतः बहुत से भोले पुरुष आर्षग्रन्थों का स्वाध्याय छोड़कर इन पुस्तकों को पढ़ते हैं जिसके कारण उनका श्रद्धान भी एकान्तमिथ्यात्वरूप हो जाता है।
-जें. ग. 20-6-63/1X-X/प्रा. ला. जैन
लेश्या मार्गरणा
लेश्या का स्वरूप और कार्य शंका-लेश्या का कार्य संसार को बढ़ाना कहा गया है, किन्तु यह कार्य कषाय का है। क्या कषाय के बिना लेश्या संसार बढ़ा सकती है ?
समाधान-श्री पूज्यपादआचार्य ने द्रव्यलेश्या और भावलेश्यारूप दो प्रकार की लेश्या बतलाकर भावलेश्या का लक्षण निम्न प्रकार किया है।
"भावलेश्या कषायोदयरञ्जिता योगप्रवृत्तिः" ( सर्वार्थसिद्धि २६ )। अर्थात्-कषाय के उदय से अनुरंजित योगप्रवृत्तिरूप भाव लेश्या है ।
श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने, श्री अकलंकदेव ने राजवातिक अध्याय २ सूत्र ६ वार्तिक ८ में तथा श्री वीरसेन आचार्य ने धवल पु०१पृ० १४९ पर इसी प्रकार लेश्या का लक्षण किया है। ऐसा लक्षण करने पर दो प्रश्न उत्पन्न होते हैं। प्रथम तो उपशांतकषायगुणस्थान, क्षीणकषाय गुणस्थान और सयोगकेवली गुरणस्थान में शुक्ललेश्या कही गई है, किन्तु कषायोदय का प्रभाव होने से लेश्या का उपर्युक्त लक्षण घटित नहीं होता। दूसरा प्रश्न यह है कि योग और कषाय का पृथक् पृथक् कथन हो जाने के पश्चात् लेश्या का कथन निरर्थक हो जाता है।
प्रथम प्रश्न का उत्तर देते हुए श्री पूज्यपादआचार्य तथा श्री अकलंकदेव ने सर्वार्थसिद्धि व राजवातिक अध्याय २ सूत्र ६ की टीका में निम्न प्रकार लिखा है
"पूर्वभावप्रज्ञापननयापेक्षया याऽसौ योगप्रवृत्तिः कषायानुरञ्जिता सैवेत्युपचारादौदयिकीत्युच्यते ।"
अर्थात्-जो योगप्रवृत्ति कषाय के उदय से अनुरंजित है; वही यह है इस प्रकार पूर्वभाव प्रज्ञापननय की अपेक्षा उपशांतकषाय आदि गुणस्थानों में भी लेश्या को औदयिकभाव कहा गया है ।
किन्तु श्री वीरसेन स्वामी इसका उत्तर अन्य प्रकार से निम्न शब्दों द्वारा देते हैं
"लेश्या इति किमुक्त भवति ? कर्मस्कन्धेरात्मानं लिम्पतीति लेश्या। कषायानुरञ्जितव योगप्रवृत्तिलेश्येति नान परिगृह्यते सयोगकेवलिनोऽलेश्यत्वापत्तः। अस्तु चेन्न, 'शुक्ललेश्यः सयोगकेवली' इति वचनव्याघातातू । [ धवल १ पृ० ३८६ ]।
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