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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
३१४ ]
'चक्षुदर्शनी होकर' अर्थात् चतुरिन्द्रिय या पंचेन्द्रिय पर्याप्त होकर कम से कम अन्तर्मुहूर्त जीवित रहकर पुनः 'प्रचक्षुदर्शनी होने पर' अर्थात् एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय या तीनइन्द्रिय होने पर चक्षुदर्शन का काल अन्तर्मुहूर्तं प्राप्त होता है, क्योंकि एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय या तीनइन्द्रिय जीवों के चक्षुदर्शन नहीं होता है । इस टीका का यह अभिप्राय नहीं है कि जिसके चक्षु दर्शन होता है उसके श्रचक्षुदर्शन नहीं होता है। जिसके चक्षुदर्शन होता है उसके अचक्षुदर्शन भी होता है, क्योंकि छद्मस्थप्रवस्था में प्रचक्षुदर्शन का क्षयोपशम सदैव रहता है ।
- जै. ग. 15-8-66 / 1X / र. ला. जैन, मेरठ
निद्रा का काल
शंका- क्या एक जीव अन्तर्मुहूर्त से अधिक निद्रावस्था में नहीं रह सकता, सोता हुआ मनुष्य एक अन्तमुहूर्त पश्चात् अवश्य जाग जायेगा ? इसी प्रकार क्या जागृत अवस्था भी एक अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रहती अर्थात् जागते हुए मनुष्य को एक अन्तर्मुहूर्त पश्चात् अवश्य निद्रा आ जाती है ? सविस्तार उत्तर देने की कृपा करें ।
समाधान --- दर्शनावरणकर्म की नो प्रकृतियाँ हैं । १. चक्षुदर्शनावरण, २. अचक्षुदर्शनावरण, ३. अवधिदर्शनावरण, ४. केवलदर्शनावरण, ५. निद्रा, ६. निद्रानिद्रा, ७. प्रचला, ८. प्रचलाप्रचला, ६. स्त्यानगृद्धि । इन नौ दर्शनावरणप्रकृतियों में से प्रथम चारप्रकृतियों का तो छद्मस्थ के निरन्तर उदय रहता है। अतः यह चारप्रकृतिकउदयस्थान हैं । यदि इन चारप्रकृतियों के साथ अन्य पाँच प्रकृतियों में से किसी एक निद्रा का भी उदय हो जाता है तो पाँच प्रकृतिक उदयस्थान हो जाता है । दर्शनावरणकर्म के १. चारप्रकृतिक २. पाँचप्रकृतिक ये दो ही उदयस्थान हैं ( पंचसंग्रह पृ० ४२४-२५ ) । निद्रा आदि पाँच प्रकृतियों का उदय व उदीरणाकाल जघन्य से एकसमय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है ( धवल पु० १५ पृ० ६१-६२ । अतः सुप्त अवस्था अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रह सकती । निद्रा आदि पाँच प्रकृतियों के उदय, उदीरणा का जघन्य व उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है धवल पु० १५ पृ० ६८ ) । अत: जागृत अवस्था भी एक अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रह सकती ।
दर्शनावरण के चारप्रकृतिक उदय से पाँचप्रकृतिक उदय होना 'भुजाकार' कहलाता है | पाँचप्रकृतिक उदय से चारप्रकृतिक उदय होना 'अल्पतर' कहलाता है। प्रकृतियों का एक समय से अधिक उदय रहना अथवा पाँचप्रकृतियों का एकसमय से अधिक उदय रहना 'अवस्थित' कहलाता । धवल पु० १५ पृ० ९७ पर अवस्थिति का जघन्यकाल एकसमय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्तं कहा है । इससे भी सिद्ध है कि किसी भी जीव के जागृतअवस्था या सुप्तदशा एक अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रह सकती । इस आगमप्रमाण से सिद्ध है कि सोता हुश्रा मनुष्य एक अन्तर्मुहूर्तं पश्चात् श्रवश्य जाग जायगा । जागता हुआ मनुष्य एक अन्तर्मुहूर्त पश्चात् कम से कम एकसमय के लिये अवश्य सो जायगा । सुप्तदशा में जागने का काल और जागृत अवस्था में सोने का काल इतना सूक्ष्म होता है जो साधारण व्यक्तियों के अनुभव में नहीं आता । अतः यह कथन श्रागम प्रमाण से ही जाना जा सकता है ।
आजकल बहुत से व्यक्तियों ने अपने अनुभव के आधार पर पुस्तकें लिखनी प्रारम्भ करदी हैं जिनमें आगम के विरुद्ध भी कथन पाया जाता है । पुस्तकों में सरल भाषा में होने के कारण तथा कथन रोचक होने के कारण
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