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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार !
अर्थ-'लेश्या' इस शब्द से क्या कहा जाता है ? जो कर्मस्कन्धों से आत्मा को लिप्त करती है उसे लेश्या कहते हैं। यहाँ पर 'कषाय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं' यह अर्थ नहीं ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि इस अर्थ का ग्रहण करने पर सयोगकेवली के लेश्या रहितपने की आपत्ति प्राप्त होती है। यदि यह कहा जावे कि सयोगकेवली को लेश्यारहित मान लिया जाये तो क्या हानि है ? ऐसा नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा मान लेने पर 'सयोगकेवली के शुक्ललेश्या पाई जाती है, इस वचन का व्याघात हो जायगा। इसलिये जो कर्म स्कंधों से आत्मा को लिप्त करती है वह लेश्या है। (धवल पु० १ पृ० ३८६ )।
__ श्री वीरसेन आचार्य ने इसी प्रश्न का दूसरा उत्तर यह भी दिया है कि 'कषायानुविद्ध योगप्रवृत्ति को ही लेश्या कहते हैं ऐसा मान लेने पर ग्यारहवें आदि गुणस्थानों में लेश्या का प्रभाव नहीं हो जाता क्योंकि 'लेश्या' में योग की प्रधानता है, कषाय प्रधान नहीं है । कषाय योगप्रवृत्ति का विशेषण है वह प्रधान नहीं हो सकती।
"कषायानुविद्धायोगप्रवृत्तिर्लेश्येति सिद्धम् । ततोत्र वीतरागीणां योगी लेश्येति, न प्रत्यवस्थेयं तन्त्रत्वाद्योग. स्य, न कषायस्तन्वं विशेषणत्व-तस्तस्य प्रधान्याभावात् ।" (धवल पु० ११० १५०)।
अर्थ-'कषायानुविद्ध योगप्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं' ऐसा सिद्ध हो जाने पर ग्यारहवें आदि गुणस्थानवर्ती वीतरागियों के केवल योग को लेश्या नहीं कह सकते हैं ऐसा निश्चय नहीं कर लेना चाहिये, क्योंकि लेश्या में योग की प्रधानता है, कषाय प्रधान नहीं है, कारण कि वह योग प्रवृत्ति का विशेषण है, अतएव उसकी प्रधानता नहीं हो सकती है।
'कषायानुरंजित योगकी प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं' इस लक्षण में योग की प्रधानता करने से 'जो आत्मा को कर्मों से लिप्त करती है उसको लेश्या कहते हैं यह दूसरा लक्षण भी सिद्ध हो जाता है।
लिपदि अप्पोकीरवि एवीए णियय पुग्ण-पाव च।
जीवो ति होइ लेस्सा लेस्सागुण-जाणयक्खावा ॥ (गो० जी० ४८९ ) अर्थ-जिसके द्वारा जीव पुण्य और पाप से अपने को लिप्त करता है। उनके आधीन करता है उसको लेश्या कहते हैं ऐसा लेश्या के स्वरूप को जानने वाले गणधरदेव आदि ने कहा है
"आत्म-प्रवृत्ति-संश्लेषणकरी लेश्या।" ( धवल १ पृ० १४९, धवल ७ पृ० ७)। अर्थ-जो आत्मा और प्रवृत्ति अर्थात् कर्मका सम्बन्ध करनेवाली है उसको लेश्या कहते हैं । "जीव-कम्माणं संसिलेसणयरी पिच्छतासंजम-कषाय-जोगा त्ति भणिदं होदि ।" (धवल ८ पृ० ३५६)।
अर्थ-जो जीव व कर्म का सम्बन्ध कराती है वह लेश्या कहलाती है। मिथ्यात्व, असंयम कषाय और योग ये लेश्या हैं; अर्थात् मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग ये जीव और कर्म के संबंध के कारण हैं. अतः इनको लेश्या कहा है।
उपशांतकषाय आदि गुणस्थानों में प्रात्मा और कर्म के सम्बन्ध का कारण योग पाया जाता है इसलिये कषाय का अभाव होने पर भी इन गुणस्थानों में लेश्या का सद्भाव पाया जाता है। कहा भी है
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