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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : ___अर्थ-विभंगज्ञान संजी, मिथ्याष्टिजीवों के तथा सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों के होता है । ११७।। सुमतिज्ञान, सुश्रुतज्ञान और सु-अवधिज्ञान ये तीनों ज्ञान असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषायवीतराग छमस्थगुणस्थान तक होते हैं॥ १२०॥ अवधिदर्शनवाले जीव असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थगुरणस्थान तक होते हैं ॥१३४।।
-जे.ग. 8-2-68/IX/घ. ला. सेठी
(१) विभिन्न गतियों में विभंग ज्ञान का काल (२) मिथ्यात्वी तियंच व मनुष्यों के भी विभंग ज्ञान की उत्पत्ति (३) सम्यक्त्वी के मिथ्यात्व में आने पर विभंग का अस्तित्व काल
(४) चारों गतियों में अपर्याप्तावस्था में विभंग-निषेध शंका-'भव प्रत्ययअवधि या विभंगज्ञान तो मनुष्य तियंचों को होता नहीं, गुणप्रत्यय होता है। वह भी सम्यक्त्व आदि के निमित्त होने पर ही होता है। मिथ्यात्व व असंयम हो जाने पर वह ( देशावधि ) छुट जाता है। परन्तु ध० पु० १३ पृ० २९७ पर तो मनुष्य व तिथंच मिथ्यादृष्टियों के विमंगज्ञान भी स्वीकार किया है जो अशुभ चिह्नों से उत्पन्न होता है। सम्यक्त्व हो जाने पर वह ही विभंग ज्ञान अवधिज्ञान नाम पाता है और मिथ्यात्व हो जाने पर अवधिज्ञान का नाम विभंग हो जाता है। परन्तु अवधिज्ञान की अपेक्षा दोनों में कोई भेद नहीं है । सम्यक्त्व हो जाने पर अशुभ चिह्न शुभ हो जाते हैं और मिथ्यात्व हो जाने पर शुभ चिह्न अशुभ हो जाते हैं। इससे 'मिथ्यात्वादि होने पर अवधिज्ञान टूट जाता है' यह नियम बाधित होता है। यदि कहा जावे कि अवधि टूटकर विभंग नाम पाना ही अवधि का टूटना है सो भी नहीं, क्योंकि जिसप्रकार देव, नारकियों के अपर्याप्त अवस्था में अवधिज्ञान माना गया है-उसप्रकार विभंगज्ञानी मनुष्य, तिर्यच मरकर देवनारकियों में उत्पन्न होने वालों की अपेक्षा अपर्याप्त अवस्था में विभंग ज्ञान क्यों स्वीकार नहीं किया गया?
समाधान-सम्यग्दृष्टिप्रवधिज्ञानी मनुष्य या तियंचों के सम्यक्त्व छूट जानेपर अवधिज्ञान संक्लेशपरिणामों के कारण सर्वथा नष्ट भी हो जाता है और कभी यदि नष्ट नहीं होता तो उसका नाम अवधिज्ञान न रह कर विभंग ज्ञान तो हो ही जाता है, किन्तु सम्यग्दर्शन आदि विशुद्धता के अभाव के कारण वह भवानुगामी भी नहीं रहता
और उसके क्षयोपशम का [ यानी अस्तित्व का ] उत्कृष्ट काल एक अंतर्मुहूर्त हो जाता है। मिथ्यादृष्टिमनुष्य व तियंचों के भी विभंगज्ञान की उत्पत्ति होती है, किन्तु वह भी भवानुगामी नहीं होता और उसके भी क्षयोपशम का काल एक अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं होता है। देवों में विभगज्ञान का उत्कृष्टकाल ३१ सागर और नारकियों में ३३ सागर है, किन्तु वह विभंगज्ञान भी भवानुगामी नहीं है। अपर्याप्त अवस्था में विभंग उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि देव, नारकियों का पर्याप्त भव ही भवप्रत्यय विमंगज्ञान के लिये कारण है। मनुष्य व तियंचों के भी अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि अपर्याप्तकाल में पर्याप्ति पूर्ण न होने से उस प्रकार की शक्ति का अभाव है। अतः अपर्याप्त अवस्थाओं में चारों गतियों में किसी भी जीव के विमंगज्ञान नहीं पाया जाता।
-जं. सं. 26-6-58/V/ जि. कु. जैन, पानीपत सम्यक्त्वी को विभंगज्ञान नहीं होता शंका-सम्यग्दृष्टि नारकी के विभंगावधि ज्ञान होता है या सम्यगवधि ज्ञान होता है ?
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