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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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पु० १ पत्र २९२ । अणादिसरूवेण संबद्धो अमुत्तो वि मुत्तत्तमुवगओ जीवो । अनादि स्वरूप से सम्बन्ध को प्राप्त अमूर्त भी यह जीव मूर्तत्व को प्राप्त है । ( ष० खं० पु० ६ पत्र १४ ) | अणादिबंधणबद्धस्स जीवस्त संसारावस्थाए अमुत्तत्तामावादो । अनादिकालीन बन्धन से बद्ध रहने के कारण जीव का संसार अवस्था में अमूर्त होना सम्भव नहीं है | ( ष० खं० पु० १५ पत्र ३२ ) । ववहारा मुत्ति बंधादो ( वृ० द्र० सं० गाथा ) । व्यवहारनय की अपेक्षा जीव मूर्तिक है क्योंकि कर्मबन्ध से बँधा हुआ है । व्यवहारेण कर्मभिः सहैकत्व परिणामान्मूर्तोऽपि ( पं० का० गाथा २७ तत्त्वप्रदीपिकावृत्तिः ) व्यवहारनय से कर्मों के साथ एक रूप से परिणमन होने के कारण जीव मूर्तिक भी है । इस प्रकार कर्मबन्ध के कारण जीव विग्रहगति में भी मूर्तिक है और अवधिज्ञान का विषय रूपी अर्थात् मूर्तिक पदार्थ है - रूपिष्ववधेः ( त० सू० १/२७ ) अत: कार्माण व तैजस शरीर सहित विग्रहगति में गमन करने वाला जीव अवधिज्ञान का विषय है । रूपिषु इत्यनेन पुद्गलाः पुद्गलद्रव्यसम्बन्धाश्च जीवाः परिगृह्यन्ते । ( स. सि. १/२७ ) 'रूपिषु' पद द्वारा पुद्गलों और पुद्गलों से बद्ध जीवों का ग्रहण होता है । अमुत्तो जीवो कथं मणपज्जवणारोण मुत्तट्ठपरिच्छेदियोहिणाणादो हेद्विमेण परिच्छिज्जदे ? ण, मुत्तट्ठकम्मेहि अणादिबंधणबद्धस्स जीवस्स अमुत्तताणुववत्तदो । ( ष० खं० पु० १३ पत्र ३३३ ) । यतः जीव अमूर्त है अतः वह मूर्त अर्थ को जानने वाले अवधिज्ञान से नीचे के मन:पर्ययज्ञान के द्वारा कैसे जाना जाता है ? नहीं, क्योंकि संसारी जीव मूर्त आठ कर्मों के द्वारा अनादिकालीन बन्धन से बद्ध है, इसलिए वह अमूर्त नहीं हो सकता अर्थात् मन:पर्ययज्ञान के द्वारा जाना जाता है ।
- जै. सं. 13-12-56 / VII / सौ. च. का. डबका
कुप्रवधिज्ञानी के विभंगदर्शन
शंका-कुअवधिज्ञान वालों के भी अवधिदर्शन होता है या नहीं ?
समाधान - धवल पु० १ पृ० ३८५ तथा पु० १३ पृ० ३५६ पर कुअवधि ( विभंग ) ज्ञानी के अवधि - दर्शन का कथन किया है—
"विहंगदंसणं किरण परूविदं ? ण, तस्स ओहिदंसणे अंतभावादो । तथा सिद्धिविनिश्चयेऽप्युक्तम् अवधिविभंगयोरवधिदर्शनमेव ।" धवल पु० १३ पृ० ३५६ ।
अर्थ - विभंगदर्शन क्यों नहीं कहा है ? विभंगदर्शन का अवधिदर्शन में अन्तर्भाव हो जाता है । ऐसा ही सिद्धिविनिश्चय में भी कहा गया है—अवधिज्ञान और विभंगज्ञान के अवधिदर्शन होता है ।
किन्तु ध० पु० १ पृ० ३८४ पर सूत्र १३४ में अवधिदर्शन वाले के चौथे से बारहवें गुणस्थान तक ६ गुणस्थान बतलाये हैं । पहला या दूसरा गुणस्थान नहीं बतलाया है । पृ० ३६२ सूत्र ११७ में विभंगज्ञान पहले और दूसरे इन दो गुणस्थानों में बतलाया है । इससे यह ज्ञात होता है कि विभंग ( कुअवधि ) ज्ञान वाले के अवधिदर्शन नहीं होता है ।
"विभंगणाणं सष्णिमिच्छाइट्ठोणं वा सासणसम्माइट्ठीणं वा ॥११७॥ आभिणिबोहियणाणं सुदणाणं ओहि - नाम संजदसम्म इद्विप्पहूडि जावखीणकसायवीदरागछदुमत्था ति ॥१२०॥ अधिदंसंणी असंजबसम्माइद्विप्पहूडि जाव tatusसायवी दरागछमस्था ति ॥१३४॥ "
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