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२९. ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
कि मनुष्य तथा तियंचों के जो अवधिज्ञान उपयोगात्मक होता है वह उन्हीं आत्मप्रदेशों के क्षयोपशम द्वारा होता है जो नाभि के ऊपर उक्त चिह्नों में स्थित हैं। पण्डितजी का यह अभिप्राय नहीं है कि अवधिज्ञान का क्षयोपशम शुभ चिह्न करि सहित आत्मप्रदेशों पर ही होता है, सर्वाङ्ग में नहीं। पण्डितजी ने गोम्मटसार आदि महान् ग्रन्थों का मनन किया था, उनको जो ज्ञान प्राप्त हुआ था वह गुरु परम्परा से प्राप्त हुआ था। वे केवल एक अनुयोग के नहीं अपितु चारों अनुयोगों के जानकार थे । वे आगम के विरुद्ध एक शब्द भी लिखते हुए डरते थे। अतः पण्डितजी कैसे लिख सकते थे कि अवधिज्ञान का क्षयोपशम मनुष्य व तियंचों के सर्व आत्मप्रदेशों में नहीं होता। प्रात्मा के सर्वप्रदेशों में अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होता है, किन्तु मनुष्य व तिर्यंचों के सर्वांग से उपयोगात्मक न होकर उन्हीं आत्मप्रदेशों से ज्ञान होता है जो आत्मप्रदेश शुभ चिह्नों करि सहित हैं क्योंकि अन्यत्र करण का अभाव है। विशेष के लिए देखो १० खं० १३ वीं पुस्तक तथा जयधवला पु०१।
-जे.सं. 14-6-56/VI) क. दे. गया
__ अवधि गुण नहीं पर्याय है शंका-मेरे अभी अवधिज्ञान गुण की 'अनवधिज्ञानरूप पर्याय' है ना? यदि नहीं तो जब मुझे देव पर्याय में अवधिज्ञान होगा तब वहाँ असत् गुण का उत्पाद मानना पड़ेगा। समाधान-अवधिज्ञान गुण नहीं है । ज्ञान गुण की पर्याय है । क्षायोपशमिक भाव है।
-पत्राचार 6-5-80/ ज. ला. जैन, भीण्डर अवधिक्षेत्र में प्रमाण योजन अपेक्षित है शंका-भवनवासी आदि के अवधिज्ञान के क्षेत्रप्रकरण में कहा जाने वाला योजन, प्रमाणयोजन है. आत्मयोजन है अथवा उत्सेधयोजन है ?
समाधान-भवनवासी आदि देवों के अवधिज्ञान के क्षेत्र का माप प्रमाणांगुल से बने योजन अर्थात् प्रमाण योजन से है. क्योंकि उत्सेधांगूल से देवादि चारों गतियों के जीवों के शरीर की ऊंचाई का प्रमाण तथा देवों के निवासस्थान व नगरादि का प्रमाण जाना जाता है और झारी, कलश, दर्पणादि व मनुष्यों के निवासस्थान व नगरादि का प्रमाण आत्मांगुल से होता है । देखिये ति० ५० १/११०-११३।
- पलाचार | ज. ला. जैन भीण्डर
अवधि का विषय-तैजसकार्मण शंका-देह त्याग कर तेजस-कार्मणशरीर सहित विग्रहगति में गमन करने वाले जीव को क्या अवधिज्ञानी देख सकता है या नहीं? यदि देख सकता हो तो कौनसा अवधिज्ञानी?
समाधान-तैजस व कार्मणशरीर मूर्तिक हैं और उनसे बद्ध आत्मा भी कथंचित् मूर्तिक है। अनादिबन्धनबद्धत्वतो मूर्तानांजीवायवानां मूर्तेण शरीरेण सम्बन्धं प्रति विरोधासिद्धः । जीव के प्रदेश अनादिकालीन बन्धन से बद्ध होने के कारण मूर्त हैं अतएव उनका मूर्त शरीर के साथ सम्बन्ध होने में कोई विरोध नहीं । प. खं०
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