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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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समाधान-विभंगावधिज्ञान तो मिथ्यादृष्टि तथा सासादनसम्यग्दृष्टि के होता है। सम्यग्दृष्टि के तो अवधिज्ञान होता है।
"विभंगणाणं सण्णि-मिच्छाइट्ठीणं वा सासणसम्माइट्ठीणं वा ॥ ११७ ॥ ओहिणाणमसंजदसम्माइटिप्पहुडि जाव खीणकसाय-वीवराग-छमत्था त्ति ॥ १२०॥" धवल पु०१।
अर्थ-विभंगज्ञान संज्ञीमिथ्यादृष्टि जीवों के तथा सासादन-सम्यग्दृष्टि जीवों के होता है । अवधिज्ञान असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थान तक होता है।
"संपहि ऐरइय-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि तिण्णि अण्णाण । सासणसम्माइट्ठीणं, भण्णमारणे अत्थि तिणि अण्णाण।" असंजदसम्माइट्रीणं भण्णमारणे अस्थि तिण्णि जाण । धवल पु० २।
नारकी मिथ्यादृष्टि का आलाप कहने पर कुमति, कुश्रुत और विभंग ये तीन अज्ञान होते हैं । नारकी सासादन-सम्यग्दृष्टि का आलाप कहने पर कुमति, कूश्रत और विभंग ये सीन अज्ञान होते हैं। नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि का आलाप कहने पर मति, श्रुत, अवघि ये तीन सुज्ञान होते हैं।
अतः सम्यग्दृष्टिनारकी के विभंगज्ञान नहीं होता है, अवधिज्ञान होता है।
-जं.ग. 14-8-69/VII/ क. दे. जैन
विभंगज्ञान के पूर्व अवधिदर्शन होता है शंका-विभंगावधि में अवधिदर्शन क्यों नहीं ? यदि विभंगज्ञान चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन पूर्वक होता है तो ऐसा क्यों ? तथा अवधिज्ञान को भी चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन पूर्वक क्यों न माना जाय ?
समाधान-चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन पूर्वक विभंगज्ञान नहीं होता है। विभंगज्ञान से पूर्व में होने वाले दर्शन का अवधिदर्शन में अन्तर्भाव हो जाता है। कहा भी है
"विभङ्गदर्शनं किमिति पृथग् नोपविष्टमिति चेन्न, तस्यावधिदर्शनेऽन्तर्भावात् ।" धवल पु० १ पृ० ३८५ ।
"विहंगदसणं किण परूविदं ? ण, तस्स ओहिदसणे अंतब्भावादो। तथा सिद्धिविनिश्चयेऽप्युक्तम् “अवधिविभंगयोरवधिदर्शनमेव ।" धवल पु० १३ पृ. ३५६ ।
विमंग दर्शन क्यों नहीं कहा? नहीं कहा, क्योंकि उसका अवधिदर्शन में अन्तर्भाव हो जाता है। ऐसा ही सिद्धिविनिश्चय में भी कहा गया है-"अवधिज्ञान और विमंगज्ञान के अवधिदर्शन होता है।"
-जें.ग. 1-6-72/VII/ र. ला. जैन मिथ्यात्वी मनुष्य-तियंच को कुप्रवधि कैसे उत्पन्न होती है ? शंका-मिथ्यादृष्टि तिर्यच व मनुष्यों में कु-अवधिज्ञान कैसे होता है अर्थात् उसका क्या कारण है ?
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