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व्यक्तित्व और कृतित्व 1
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इन आर्ष वाक्यों से सिद्ध है कि भरतजी ने क्रोध के आवेश में आकर बाहुबली पर चक्र चलाया । यह कथन प्रामाणिक है, इसी की श्रद्धा करनी चाहिये ।
भरत व कैकेयी को परम व निर्मल सम्यक्त्व कब हुआ ?
शंका- पद्मपुराण पर्व ८६ श्लोक ९ में लिखा है कि 'भरत ने परम सम्यक्त्व को पाकर महाव्रत को धारण किया।' इसीप्रकार श्लोक २४ में लिखा है- 'निर्मल सम्यक्त्व को धारण करती हुई कैकेयी ने आर्थिका के पास दीक्षा ग्रहण की। क्या इससे पूर्व भरत और कैकेयी को सम्यक्त्व नहीं था ?
श्री भरतजी को तथा उनकी माता कैकेवी को दीक्षा ग्रहण से पूर्व भी सम्यक्त्व था किन्तु वह सम्यक्त्व परम या निर्मल नहीं था, क्योंकि जब तक श्रद्धा के अनुकूल आचरण नहीं होता, उस समय तक श्रद्धा निर्मल अथवा परम कैसे हो सकती है अर्थात् नहीं हो सकती ।
- जैं ग. 12-8-65/V / ब्र कु. ला.
जो मनुष्य परिग्रह को सब पापों का मूल तथा संसार व रागद्वेष का कारण मानता है फिर भी परिग्रह का त्याग नहीं करता तो उसकी श्रद्धा कैसे निर्मल या परम हो सकती है ? जिस मनुष्य को यह श्रद्धा हो जाती है कि अग्नि में हाथ देने से हाथ जल जायगा, वह मनुष्य भूलकर भी अग्नि में हाथ नहीं देता है । यदि वह अग्नि में हाथ डालता है तो उसकी श्रद्धा दृढ़ नहीं है । जो मनुष्य ज्ञानी होते हुए भी अज्ञानी जैसी क्रिया करता है, तो वह कंसा ज्ञानी ? इसीलिये भी अकलंकदेव ने राजवातिक में कहा
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हतं ज्ञानं क्रियाहीनं ।
अर्थात् - ज्ञान के अनुरूप यदि क्रिया नहीं है, तो ऐसा क्रियारहित ज्ञान निरर्थक है ।
श्री कुवकु व आचार्य ने भी इसी बात को शीलपाहुड़ में निम्नप्रकार कहा है
जाणं चरितहीणं निरस्वयं सम्वं ।
अर्थ -- ज्ञान यदि चारित्र रहित है तो वह सब ज्ञान व्यर्थ है । दीक्षा ग्रहण करने से ज्ञान और श्रद्धान के चारित्र हो जाने से ज्ञान - श्रद्धान सार्थक हो गया, अतः सम्यक्त्व निर्मल तथा परम हो गया ।
अनुरूप
- जै. ग. 17-4-69 / VII / ट. ला जैन
(१) भरत चक्रवर्ती के दीक्षागुरु का श्रागम में उल्लेख नहीं मिलता । (२) बलदेव ने स्वयं ( बिना गुरु के ) दीक्षा ग्रहण करली ।
शंका- श्री भरत चक्रवर्ती ने दीक्षा किससे ली थी ? तीर्थंकरों के अतिरिक्त क्या अन्य जन भी स्वयं मुनिदीक्षा ले सकते हैं ?
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समाधान - श्री भरत चक्रवर्ती की दीक्षा का कथन निम्न प्रकार है
विदितसकलतत्त्वः सोऽपवर्गस्य मार्ग | जिगमिषुरपसर्गमं निष्प्रयासम् ॥ यमसमितिसमयं संयमं सम्बलं वा ।
उदितविदितसमर्थाः किं परं प्रार्थयन्ते ॥ ४७ / ३९४।। विपुराण
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