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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
इससे सिद्ध है कि भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवली थे और उनको पूर्ण श्रुत अर्थात् द्वादशांग का ज्ञान था । गणधर तो द्वादशांग की रचना करते हैं । द्वादशांग के ज्ञान बिना द्वादशांग की रचना नहीं हो सकती, अतः गणधर महाराज को द्वादशांग का ज्ञान भी होता है । कहा भी है
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विमले गोयमगोत्तं जादेण इंदभूदिणामेण । चउवेदपारगेणं सिस्सेण विशुद्ध सीलेण ॥१-७८ ॥ भावसुद पज्जयेहि परिणदमयिणा अबारसंगाणं ।
चोपुव्वाण तहा एक्क-मुहुत्त्रेण विरचणा विहिदा ॥१-७९ ॥ ति. प.
निर्मल गौतम गोत्र में
उत्पन्न हुए, प्रथमानुयोग-करणानुयोग- चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इन चारों वेदों में पारंगत विशुद्ध शील के धारक, भावश्रुत में परिपक्व ऐसे इन्द्रभूति ( गौतम गणधर ) द्वारा एक मुहूर्त में बारह अंग और चौदह पूर्वो की रचना की गई। इसीप्रकार धवल पु० ९ पृ० १२९ पर भी कथन है ।
इसप्रकार गणधर भी श्रुतकेवली होते हैं । किन्तु श्रुतकेवली से गणधर का स्थान ऊँचा है, अत: वे गणधर के नाम से प्रसिद्ध हैं ।
- जै. ग. 16-2-78/VI / मा. स. जैनपुरी
"भरत ने चक्र नहीं चलाया", यह कथन मिथ्या है ।
शंका- भरतजी ने चक्र नहीं चलाया ऐसा 'भरतेशवंभव' में कहा है। क्या यह ठीक है ?
समाधान - श्री १००८ वीरसेन स्वामी के शिष्य एवं महान् ग्रन्थ जयधवल टीका के रचयिता श्री १०८ जिनसेन आचार्य ने महापुराण पर्व ३६ में निम्नप्रकार कहा है । यह महापुराण ग्रन्थ प्रामाणिक है, इसमें एक शब्द भी श्री वीरसेन स्वामी के शिष्य श्री जिनसेन स्वामी अपनी कल्पना के आधार पर नहीं लिख सकते थे, क्योंकि श्री वीरसेन स्वामी ने धवल ग्रन्थ में कई स्थलों पर स्पष्ट लिखा है कि इस सम्बन्ध में उपदेश प्राप्त नहीं है अतः इस विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। श्री जिनसेन आचार्य ने जो कुछ भी महापुराण में लिखा है वह आचार्य परम्परागत उपदेश अनुसार लिखा है। श्री जिनसेन आचार्य सत्य महाव्रत के धारी थे तथा वीतरागी थे, फिर वे महापुराण में अन्यथा कथन क्यों करते । अतः महापुराण प्रामाणिक ग्रन्थ है । जो महापुराण के कथन में संदेह करता है, वह मिथ्यादृष्टि है । षट्प्राभृत संग्रह पृ० ३ ।
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क्रोधान्येन तदा दध्ये कतु मस्य पराजयम् । चक्रमुत्क्षिप्त निःशेषद्विषच्चक्र' निधीशिना ॥ ६५ ॥
आध्यानमात्रमेत्याराद् अदः कृत्वा प्रदक्षिणाम् ।
अवध्यस्यास्य पर्यन्तं तस्थौ मन्दीकृतातपम् ॥ ६६ ॥ म० पु० पर्व ३६
अर्थ – उस समय क्रोध से अन्धे हुए निधियों के स्वामी भरत ने बाहुबली का पराजय करने के लिये समस्त शत्रुओं के समूह को उखाड़ कर फेंकने वाले चक्ररत्न का स्मरण किया । स्मरण करते ही वह चक्ररत्न भरत के समीप आया भरत ने बाहुबली पर चलाया, परन्तु उनके प्रवध्य होने से वह उनकी प्रदक्षिणा देकर तेजरहित हो उन्हीं के पास ठहरा ।
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