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लेखक द्वय प्राप्त किये थे; उन्हींके प्रसाद स्वरूप यह पुस्तक लिखी जा सकी अतः उन्होंकी वस्तु उन्हें ही समर्पित करनेमें लेखकद्वयने जो आनन्दका अनुभव किया है; वह एक वास्तविकता है ।
लेखकद्वय ने अपने सारगर्भित वक्तव्यमें बहुमूल्य शोधसामग्री प्रस्तुत की है। उन्होंने उसमें अनेक प्रश्न उठाये हैं और उनका विद्वत्तापूर्ण समाधान - उत्तर भी दिया है । इस शोधपूर्ण ग्रन्थको लिखने - सामग्री संकलन करने और उसकी प्रामाणिकताको जांचनेमें लेखकद्वयको पाँच वर्षों तक निरन्तर श्रम करना पड़ा है । उन्होंने अपने श्रमको व्यंजित करते हुए वक्तव्यमें एक श्लोक उद्धृत किया हैविद्वानेव विजानाति, विद्वज्जनपरिश्रमम् ।
न हि वन्ध्या विजानाति, गुर्वी प्रसववेदनाम् ||
विद्वान्का परिश्रम विद्वान् ही जानता | गुर्वी प्रसववेदनाको वन्ध्या नहीं जानती ।
प्रामाणिकता - सारगर्भितता और सरल शैलीने इस ग्रंथको अत्यन्त लोकप्रिय बना दिया । विद्वद्वर्य श्री लब्धिमुनिजीने इसे आधार बनाकर सूरिजी के चरित्रको संस्कृत पदावलिमें पुस्तकीकरण किया है यह गुजराती अनुवाद में प्रकाशित हो चुका है । इसकी प्रस्तावना श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई ने लिखी है; जो अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण है । यह ग्रन्थ संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, बंगला, अंग्रेजी प्राचीन भाषाओं और सैकड़ों हस्तलिखित प्राचीन पाण्डुलिपियों, प्रशस्तियों, पट्टावलियों, विकीर्ण पत्रों, रिपोर्टों आदिके गहन अध्ययन चिन्तन और मनन आधारपर लिखा गया है; अतः इसकी प्रामाणिकता निस्सन्देह है । पुस्तकको उपयोगी बनाने के लिए लेखकद्वयने सांकेतिक अक्षरोंका स्पष्टीकरण, अनुक्रमणिका, चित्रसूची, सम्मति, विशेषनाम सूची और शुद्धाशुद्धि पत्रक भी दिये हैं ।
पुस्तककी सामग्री, उसका चिन्तन, उसमें प्रस्तुत तर्क और प्रस्तुति - अत्यन्त प्रौढ़ हैं । लेखकोंके प्रकाण्ड पाण्डित्य, अत्यन्त सूक्ष्मदर्शिनी दृष्टि और उसकी शोधप्रवृत्तिको स्पष्टतः इस ग्रन्थमें अवलोकित किया जा सकता है ।
नीरक्षीर विवेकी शोध विद्वान् और इतिहासकार उस समय बड़ी दुविधा में पड़ जाते हैं जब उन्हें किसी चरित्रकी अलौकिक एवं अत्यन्त चमत्कारिक घटनाओंको लिखना पड़ता है । वे इस प्रकार के विस्मयोत्पादक अलौकिक घटनाचक्रको अगर ध्यानान्तरित करते हैं तो लाखों भावुक भक्तोंकी भावनापर आघात पहुँचता है और अगर वैसा करते हैं; अलौकिक घटनाओंको अपने पूर्ण समर्थनके साथ प्रस्तुत करते हैं तो इतिहासकार के पथ से च्युत हो जाते हैं । श्री नाहटाजीके लेखन कर्ममें उक्त प्रकारका धर्मसंकट आ पड़ा था । उन्होंने मध्यम मार्ग अपनाया और जीवनी प्रकरणोंसे भिन्न एक अलग घटनाओंको सुव्यवस्थित कर दिया। इस प्रकार वे इस ग्रन्थ में इतिहासकार के कर सके हैं; वहाँ उन्होंने धार्मिक जनताकी भावनाका आदर भी किया है । ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह
श्री अगरचन्द्रजी नाहटा एवं श्री भंवरलालजी नाहटा के सहवत्त संपादकत्व में संवत् १९९४ में श्री अभय जैन ग्रंथमालाके अष्टम पुष्पके रूपमें इस ग्रंथरत्नका प्रकटन हुआ है । पुस्तकका समर्पण श्री दानमल जी नाटाकी स्वर्गस्थ आत्माको उनके अनुज और उक्त ग्रंथके प्रकाशक श्री शंकरदानजी नाहटाने किया है । प्रकाशक नाहटा श्री अगरचन्दजी के पिता एवं श्री भंवरलालजीके पितामह थे ।
यह ग्रंथ तीन दृष्टियोंसे अत्यन्त उपयोगी है । पहला दृष्टिकोण ऐतिहासिकताका है; द्वितीय भाषिकताका और तृतीय साहित्यिकताका । इसमें कतिपय साधारण काव्योंके अतिरिक्त प्रायः सभी काव्य ऐतिहासिक दृष्टिसे संग्रह किये गये हैं । अद्यावधि प्रकाशित संग्रहोंसे भाषासाहित्यकी दृष्टिसे यह संग्रह सर्वाधिक
जीवन परिचय : ६३
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अध्याय में समस्त चमत्कारिक पुनीत कर्तव्यका जहाँ पालन
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