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________________ है वह अत्यन्त विश्वसनीय और सच्चे कच्चे चिट्रेके रूपमें है। लेखकने यह निःसंकोच भावसे लिखा है कि यौवनके देहली द्वारपर कामोत्तेजक पुस्तक-चित्र और कुसंगने उसको आत्मघाती पथपर अग्रसर कर दिया था और उससे मुक्ति पाने में उसे कितना हर्ष-विषादका अनुभव हआ था।"आदि आदि । अब हम एकैकशः उन पुस्तकोंका परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं, जिन्हें या तो श्री नाहटाजीने लिखा है या सम्पादित किया है अथवा शुभ आशीर्वाद दिया है। विधवा कर्तव्य श्री अगरचन्दजी नाहटाकी प्रथम कृति होने का सौभाग्य इस पुस्तकको है । इसे लेखकने जैनाचार्य श्री १००८ श्री जिनकृपाचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजकी शिष्या साध्वी श्री महिमाश्रीजीको समर्पित किया है। इसका प्रकाशन संवत् १९८६ है। पाटणके प्रसिद्ध भण्डारसे प्राप्त, ताडपत्रांकित, गाथाबद्ध 'विधवा कूलक' नामक लेखका विवेचनसहित हिन्दी अनुवाद इस पुस्तकमें किया गया है। यह कुलक 'जैनधर्मप्रकाश' नामक गुजराती मासिक पत्रमें भी प्रकाशित हुआ था । लेखकने समाजके ही अभिन्न अंग विधवा समाजको उनके कर्तव्यके प्रति जागरूक करनेके लिए इस पुस्तकका प्रकाशन किया है। लेखकने ग्रन्थादिमें अपने गुरु श्री जिनकृपाचन्द्रसूरीश्वरको नमन किया है और इस ग्रन्थरचनाके मूल प्रेरणास्रोत उन्हींको बताया है : पूर्वाचार्य कृत कुलकका, करूँ भाषा अनुवाद । विधवा कर्त्तव्य वर्णवू, सद्गुरु भणे सुप्रसाद ॥ पुस्तकके 'विवेचन' उपशीर्षकमें युवक नाहटाका विचार मन्थन झलकता है। मूलगाथाको बात को स्पष्ट करनेके लिए वे अनेक उदाहरणोंको प्रस्तुत करते हुए, दिन रात घटनेवाले क्रिया-व्यापारोंका खुलकर उल्लेख करते हैं। जिससे गाथाका मलभाव अत्यन्त स्पष्ट होकर हृदयंगम हो जाता है। प्रत्येक 'गाथा'पर उनका विवेचन सुन्दर विचारोंका एक छोटा-सा निबन्ध बन जाता है; जिसे स्वतन्त्ररूपसे भी अगर पढ़ें तो वह अपूर्ण प्रतीत नहीं होता और उसका स्वाध्याय पवित्र प्रेरणाका संचार करने में सक्षम सिद्ध होता है। गाथामें प्रस्तुत कथ्यको अधिक स्पष्ट और प्रभावक बनानेके लिए लेखकने अनेक उद्धरण दिये हैं; जिससे उसके व्यापक अध्ययनका संकेत मिलता है। लगभग आधी पुस्तकमें, गाथा भावार्थ और विवेचन है। शेषाच भागमें विधवा सञ्जीवन यापनके लिए व्यावहारिक उपदेश-कर्तव्य, दिनचर्या, आदिपर प्रकाश डाला गया है। इस पुस्तकमें यहाँतक बताया गया है कि विधवाको कपड़े कैसे पहिनने चाहिये; भोजन कैसा और कैसे करना चाहिये-कहाँ बैठना और कहाँ नहीं बैठना चाहिये आदि । लेखकने इस प्रसंगमें घरवालोंको भी मार्गदर्शन दिया है कि वे विधवाओंके साथ किस प्रकारका व्यवहार करें। उसने समाजको भी विधवाओंके प्रति अपने दायित्वको वहन करनेके लिए सजग किया है। पुस्तकान्तमें श्री देवचन्दजीकी मर्मस्पर्शी पंक्ति दी गयी है: 'बाधक भाव अद्वेष पणे तजेजी, साधकसे गतराग' अर्थात-आत्मिक उन्नतिमें जो साधक हो उसे बिना रागभावसे ग्रहण करो और जो बाधक हो उसे द्वेषरहित होकर छोड़ दो। युगप्रधान श्री जिनचन्दसूरि यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ श्री अभय जैन ग्रंथमालासे सप्तम पुष्पके रूपमें प्रस्फुटित हुआ है । इसका प्रकाशन संवत् १९९२ है । समर्पणकी भावभरी भाषासे अभिव्यंजित होता है कि उक्त पुस्तक निर्मिति-लेखनमें जैनाचार्य श्री जिनकृपाचन्द्रजी सूरीश्वरका पूर्ण आशीर्वाद रहा है और उनके श्रीमुखसे जो ज्ञानराशि एवं उत्प्रेरण ६२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ 'बाधक मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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