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अथवा पारिवारिकोंको अथवा वीतराग सन्तोंको अथवा उपयुक्त पात्रोंको । उनके इस समर्पण मूल्यांकनसे यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि श्री नाहटाजी भौतिक समृद्धि अथवा किसी एषणाके निमित्त आदर्श और पात्रताका गला नहीं घोटते । उनके समर्पण में पात्रगत औचित्यका पूरा ध्यान रक्खा जाता । उनका समर्पण अन्तर्ध्वनि से सम्बद्ध अधिक है और लौकिक तुष्टिसे कम । यही कारण है कि श्री नाहटाजीने अपना कोई ग्रंथ किसी स्वार्थ विशेष की सम्पूतिके निकृष्टतम उद्देश्यकी अवाप्ति के लिए- किसी अनधिकारीको समर्पित नहीं किया । इससे बड़ी गुणग्राहकता और क्या हो सकती है ? यह उच्चस्तरकी निष्काम सेवाभावना है; जिसकी आज सर्वाधिक आवश्यकता है ।
श्री पूर्णचन्द्रजी नाहर ने अगर अपने जीवनको साहित्य एवं कला-सेवामें लगा दिया था तो मोहनलाल दलीचंद देसाईने जैन एवं गुजराती साहित्य उद्धार संरक्षण के लिए अपना सर्वस्व होम दिया था । वे निष्णात साहित्य महारथी थे; 'जैन गुर्जर कविओ भाग १.२.३ 'जैनसाहित्य नो संक्षिप्त इतिहास' जैसे अमर ग्रंथ रत्न उनके कीर्तिशरीरको अमर बनानेके लिए पर्याप्त हैं । हमारे चरितनायक श्री नाहटाजीने अपना ग्रंथ 'समयसुन्दर कृति कुसुमाञ्जली' इन्हीं प्रातःस्मरणीय श्री देसाईको समर्पित किया है क्योंकि श्री देसाई लिखित 'कविवर समयसुन्दर' निबंधने ही आपको साहित्यक्षेत्रमें आगे बढ़ने की प्रेरणा दी थी। इसीको कहते हैं' त्वदीयं वस्तु गोविन्द ! तुभ्यमेव समर्पये'
किसी सारस्वतसे उऋण होनेका कितना श्लाघ्य पथ है यह जिसे श्री नाहटाजीने अपना रक्खा है । 'तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर' जैसी पवित्र भावनाका दर्शन हमें श्री नाहटा लिखित ग्रंथ 'युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि ' के समर्पण सन्दर्भ में भी उपलब्ध होता है । उक्त ग्रंथ परमपूज्य श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी महाराजको श्री नाहटाने निम्नांकित शब्दावलीमें समर्पित किया है, जो पठितव्य हैः
" आपके सदुपदेश से हमारे हृदयक्षेत्रमें साहित्यानुराग और साहित्यसेवाका जो भव्य बीज प्रस्फुटित और पल्लवित हुआ है, उसीके फलस्वरूप यह प्रथम पुष्पाञ्जलि प्रेम श्रद्धा और भक्तिपूर्वक आपके करकमलोंमें सादर समर्पित है"
वस्तुतः इस समर्पण में इतिहास है, यथार्थ छिपा बैठा है । श्री नाहटाजीके अपने गुरुदेव के प्रति अभिव्यक्त ये उद्गार एक घटना है जो संवत् १९८४में घटित हुई थी ।
सारांश यह है कि नाहटाजीने अपनी श्रद्धा के पुष्प उन्हीं लोगोंके चरणोंमें चढ़ाये हैं जो अत्यन्त कर्मठ, त्यागी, परिश्रमी और लगनके धनी रहे हैं और जिन्होंने साहित्य, संस्कृति और उनके संरक्षण - उन्नयन तथा प्रचार-प्रसार के लिए अपना सर्वस्व होम दिया है । इस प्रसंग में लोगोंका यह कथन अक्षरशः सत्य प्रतीत होता है कि श्री नाहटाजीके मुखसे अनौपचारिक भावमूलक हार्दिक 'शाबाशी' लेनी बड़ी कठिन है । " वे सौ दे देंगे लेकिन 'शाबाशी' नहीं देंगे ।" इसका कारण यह है कि साधुवाद अत्यन्त अभिभूत मनकी प्रतिक्रिया है और श्री नाहटाजी जैसे कर्मठ, श्रमशील, विद्वान् लेखकको अभिभूत करना साधारण खेल नहीं है । इसलिए उनके 'शाबाशी' की आशा वही रख सकता है; जिसने कबीर के निम्नांकित दोहोंका सार केवल समझा ही न हो अपितु उसे जीवनमें संघटित भी कर लिया हो सीस उतारे भुइँ घरे, ता पर राखे पाँव |
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दास कबीरा यों कहै, ऐसा होय तो आव ॥ १०२ ॥ कसत कसौटी जो टिकै, ताको शब्द सुनाय । सोई हमरा बंस है, कह कबीर समुझाय ॥ १३०||
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जीवन परिचय : ५३
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