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________________ हमारे चरितनायक श्री नाहटाजी अत्यन्त धर्मभीरु हैं; उनका जीवनरस आध्यात्मिक साधना है। इसलिए वे मन, वचन और कर्मसे किसीका भी अहित करना तो क्या; सोचना भी नहीं चाहते; वे असत्य भाषण-परुषवचन और प्रवंचनकर्मसे बहुत दूर रहने के अभ्यासी हैं। निरन्तर स्वाध्याय, तपश्चरणसे आत्मकल्याणके ऊर्ध्वपथको प्राप्त करने की सतत सदिच्छता उनमें जाग्रत है. वे ज्ञानयज्ञके परोधा है: विद्वान हादिक नमन और वन्दन उनका नित्य-नैमित्तिक कर्म है। संस्कृत कविकी निम्नांकित भावराशिके आलम्बन मानों श्री नाहटाजी ही रहे हों : सत्यं तपो ज्ञानमहिंसता च, विद्वत्प्रणामं च सुशीलता च । एतानि यो धारयते स विद्वान्, न केवलं यः पठते स विद्वान् ।। केवल पुस्तक अध्येता विद्वान् नहीं होता; विद्वान् तो वह है जो सत्य, तप, ज्ञान, अहिंसा, विद्वत्नमन और सुशीलता जैसे सद्गुणोंको धारण करता है। श्री नाहटाजी विद्वानों के भक्त और गुणग्राही पुरुष हैं। वे किसीको देकर जितने प्रसन्न होते हैं; उतने लेकर नहीं। उनकी मान्यता है कि जो अपूर्व आनन्द त्यागमें है, वह ग्रहणमें नहीं है । यह उनका अभिलेख है कि अगर किसीने उनके लिए थोड़ा भी श्रम किया तो श्री नाहटाने उसके लिए दस गुणित किया। उनकी विद्वत्-पूजाका इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि वे प्रतिवर्ष किसी न किसी विद्वान्का समारोहपूर्वक स्वागत सम्मान करते हैं और 'पत्रं पुष्यं फलं तोयं के रूपमें १०१) रुपयोंकी राशि सश्रद्धा अर्पण करते है । इस स्वागत कार्यक्रममें वे बहतसे राजस्थानी विद्वानोंको उक्त राशि प्रदान पुरस्सर सम्मानित कर चुके हैं : श्री नाहटाजीके व्यक्तित्वमें परगुणदर्शन और परमहत्त्वप्रकाशनकी अदम्य भावना और विशिष्ट आकांक्षा सन्निहित है। उनके द्वारा विविध विद्वानोंको समर्पित ग्रंथोंकी समर्पणभाषामें उक्त तथ्यका स्पष्ट अभिव्यंजन होता है। 'बीकानेर जैन लेख संग्रह'को 'स्वर्गीय श्री पूरणचन्द्रजी नाहर'की पवित्र स्मृतिमें समर्पित करते हुए उन्होंने लिखा है "जिन्होंने अपना तन-मन-धन और सारा जीवन जैन पुरातत्त्व, साहित्य, संस्कृति और कलाके संग्रह, संरक्षण, उन्नयन और प्रकाशनमें लगा दिया और जिनके आन्तरिक प्रेम, सहयोग और सौहार्दने हमें निरन्तर सरस्वती-उपासनाकी सत्प्रेरणा दी; उन्हीं श्रद्धेय स्वनामधन्य स्वर्गीय बाबू पूरणचन्दजी नाहरकी पवित्र स्मृतिमें सादर समर्पित............... समर्पणकी भावव्यंजनासे स्पष्ट हो जाता है कि श्री नाहटाजी जैसा व्यक्तित्व उसी पर रीझता है जिसने तन-मन-धन और अपने जीवन तकको पुरातत्त्व, साहित्य, संस्कृति और कलाके संग्रह, संरक्षण, उन्नयन और प्रकाशनमें अर्पण कर दिया हो; मैं तो श्री नाहरजीको धन्यवाद देना चाहता हूँ जिन्होंने श्री नाहटा जैसे निकष-पुरुषसे उक्त प्रकारकी गुण-गरिमा मंडित शब्दावली प्राप्त कर ली। इस सन्दर्भमें श्री नैषधकारके निम्नांकित श्लोकका भावार्थ कितना समीचीन और अवसरोचित प्रतीत होता है। कविने वैदर्भीकी प्रशस्तिमें भावाभिव्यंजन किया है कि वह विदर्भ कन्या दमयन्ती धन्य है, जिसने अपने गुणप्रकर्षसे निषधराज-नलको भी आकृष्ट कर लिया। चन्द्रिकाकी प्रशंसा इससे अधिक और क्या हो सकती है। जो सागरमें भी ज्वार ला देती है। "धन्यासि वैदर्भि! गुणैरुदारैः, यया समाकृष्यत् नैषधोऽपि । इतः स्तुतिः का खलु चन्द्रिकायाः, यदब्धिमभ्युत्तरलीकरोति ॥ श्री नाहटाजीके ग्रन्थ-समर्पणकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि या तो वे दिवंगतोंको समर्पण करते ५२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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