________________
बताते हए कहा कि सारे मालको रोज चैक करना उनके बलबतेसे बाहरकी चीज है। श्री नाहटाजी ने उनकी असुविधाओंको और असमर्थताओंको बड़े ध्यानसे सूना और एक अतिरिक्त कर्मचारीकी नियुक्ति करके उसे ऐसा सुगम पथ बताया कि वह काम जो कठिन समझा जाता था; बड़ी सरलतासे और आनन-फानन में होने लगा। मुनीम-गुमाश्ते सेठ साहबको इस प्रतिभासे अभिभूत हो गये। जो व्यापार आप देखते हैं; आपने उसकी नई पद्धति दे दी है। उसपर चलनेसे समस्त कार्य सुखकर हो गया है और लाभ-हानि दर्पणके समान प्रस्तुत हो जाते हैं, इससे समय और श्रम दोनोंको बचत होती है । आपकी बैठक बड़ी सशक्त है । जबतक सारा हिसाब नहीं मिल जाता; आप उठनेका नाम तक नहीं लेते और वर्षाका काम कुछ ही घंटोंमें सम्पूर्ण कर जांच तत्सम्बन्धी निर्देश दे झटिति दूसरा काम समाप्त करनेकी धुनमें रम जाते है । आपका ध्यान घाटे और डूबनके कारणोंको पकड़ने में बड़ा सिद्धहस्त है। इसलिए उनकी पुनरावत्ति प्रायः नहीं होने दी जाती । आप अपने मुनीमों-गुमाश्तों आदिकी असुविधाओंको पूरे ध्यानसे सुनते हैं और उन्हें दूर करते हैं । आपके किसी भी कार्यमें विलम्ब अथवा टालमटोलकी स्थिति नहीं रहती । जो त्वरा निर्णय लेने में आप दिखाते हैं; वही त्वरा उसके क्रियान्वयनमें रहती है और उससे भी अधिक उसके भावी परिणामोंको जाँचनेपर । यही कारण
सजगता और सतकताके कारण व्यापारथी अनुदिन समृद्ध होती जा रही है। पहिले आप लगभग आठ-दस मास तक व्यापार संलग्न रहते थे; लेकिन अब आठ-दस मास साहित्यसेवामें तल्लीन रहते हैं। वर्ष में एक-दो मास व्यापारजांचके लिए बड़ी कठिनाईसे निकाल पाते हैं। उन दो मासोंमें भी साहित्यसेवा साथ-साथ होती ही रहती है।
ज्यों-ज्यों आपकी उम्र अधिक होती जा रही है. त्यों-त्यों आपकी चिकीर्षा बढ़ती जा रही है; आप व्यापारसे और भी समय बचाकर साहित्यसेवामें तल्लीन हो जाना चाहते हैं। इस संदर्भमें आपके कतिपय वाक्य बड़े ही हृदयहारक हैं। आपके वे वाक्य वाक्य ही नहीं; अपितू स्वर्णाक्षरोंमें मँढाने योग्य एक महामहिम सारस्वतरत्नके आन्तरिक उद्गार हैं । वे प्रेरणाके स्रोत और प्रच्छन्न वेदनाके कदाचित् व्यंजक भी हैं।
"काम बहुत है, समय कम है, दूसरा कर नहीं सकता। इसलिए अधिक-से-अधिक करलेनेकी प्रबल इच्छा है। व्यापारिक कामोंमें भी साहित्यके काम बन्द नहीं करता, व्यापार तो संभाला हुआ है। संभल भी जायेगा; लेकिन साहित्यको कौन संभालेगा-चि० भंवरलाल ! वह केवल छहमास ही तो मुझसे छोटा है; अब मेरा साहित्यिक काम कभी बन्द नहीं रहता; वह तो मेरी श्वासके साथ बँधा हुआ है-वह बन्द तभी होगा, जब मेरी श्वास बन्द होगी।''
उत्तुंग शिखर मारवाड़ी पगड़ी, बलखाती सघन निर्दभ मूंछे, भव्य गौरवमयी मुखाकृति, निर्मल नेत्र, भौंहें, सघन अन्वेषणरत-सूक्ष्मग्राहिणी दृष्टि, महापुरुषलक्षणोपेत कर्णरोम, सुन्दर स्थलनासिकौष्ठ, व्यढोरस्क, वृषस्कन्ध, भारी शरीर, सामान्य कद, बन्द गलेका लम्बा कोट, उसपर पड़ा आवर्तक सुखासीन श्वेत उत्तरीय, राजस्थानी विधिसे परिधीत धौतवस्त्र और साधारण उपानत् । यह बाह्य स्वरूप है श्री अगरचन्द जी नाहटाका; उस महामहिम मूर्धन्य विद्वान्का, जो लक्ष्मीपतियोंमें श्रीमन्त सेठ है तो सरस्वती पुत्रोंमें परम सारस्वत; शोधछात्रोंका जो परम संबल है तो निराश्रितोंका प्रबल आत्मबल। उसने ज्यों-ज्यों विद्यागुण अजित किया है; त्यों-त्यों वह विनयावनत होता गया है । विद्या अपने आपमें एक गुण है और वह गुण जब विनयोपेत हो जाता है; तब उसकी शोभा लोचनानन्ददायक काञ्चनमणि संयोगसे न्यून नहीं होती :
विद्याविनयोपेतो हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य ।
काञ्चनमणिसंयोगो, नो जनयति कस्य लोचनानन्दम् ।। १. लेखकके साथ श्री अगरचन्दजी नाहटाका वार्ता-प्रसंग ।
जीवन परिचय : ५१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org