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सांई सेवत जल गई, मास न रहिया देह । सांईं जब लगि सेइहों, यह तन होय न खेह ॥१७१।। ढारसु लखु मरजीवको, धंसि के पैठि पताल ।
जीव अटक मानै नहीं, गहि ले निकर यो लाल ॥२६६।।' हमाग तात्पर्य यह है कि श्री नाहटाजी की गुणग्रहण भावना अत्यन्त मृदु है; लेकिन गुण संसिद्धिको उनको कसौटी अत्यन्त कठोर । उनके सहस्रों मित्रों, आदरणीयों-पूज्योंमेंसे कितने हैं जो उन्हें अभिभूत कर सके हैं ? वस्तुतः बहुत कम ।।
भये न केते जगतके, चतुर चितेरे चूर-बिहारी । श्री नाहटाजी किसी वस्तुका, धनका अथवा समय-श्रमका अपव्यय नहीं करते। अतः वे सुव्ययी हैं। उनकी मान्यता है कि प्रत्येक वस्तुका अधिकसे अधिक उपयोग-लाभ लेना चाहिये, जो ऐसा नहीं करते; श्री नाहटाजीकी दृष्टिमें वे या तो नादान हैं अथवा मदान्ध । उनका सुप्रतिष्ठित तर्क है : फलको आधा ही खाकर फेंक देने में जैसे बुद्धिमत्ता नहीं है अथवा किसी अभ्यास पुस्तिकाका केवल आधा पृष्ठ लिखकर छोड देने में कोई सार नहीं है; उसी प्रकार प्रत्येक उपभोग्य वस्तुको पूरे उपभोगमें न लेना कमसे कम समझदारी तो नहीं है । यह कथन श्री नाहटाजीके लिए अक्षरशः सत्य है कि जहाँ कार्डसे काम चलता है; वहाँ लिफाफा नहीं खचेंगे; वे साहित्यके रोकड़िये या मुनीम है। लेकिन इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि श्री नाहटाजी कंजूस और बद्धमुष्टि हैं। वास्तविकता तो यह है कि जिस व्यक्तिने लाखों रुपये व्यय करके कला और सरस्वतीका उद्धार किया और सौ पचास प्रतिदिन व्यय कर कलात्मक वस्तुएं अथवा पाण्डुलिपियाँ अब भी खरीदता है; जो भूखों, पीड़ितों और कष्टप्राप्त व्यक्तियोंको अन्न, वस्त्र, औषध आदिसे साहाय्य पहुँचाता है; जो बेकारोंको काम देकर भुगतान करता है। जिसकी इच्छा विद्वत-पूजन और विद्वानोंका स्वागत करनेकी निरन्तर बनी रहती है; जिसके द्वार शोधछात्रों और विद्वानों के लिए निःशुल्क आवास और भोजन कराने हेतु सतत उद्घाटित हैं और व्यापार क्षेत्र एवं गार्हस्थ्य दायित्वोंके लिए जो लाखों रुपये प्रतिवर्ष व्यय करता है; वह कंजूस कैसे हो सकता है ?
श्री नाहटाजी धैर्यधनी है। विपत्तियोंके टूटने वाले पहाड़ोंको आप अपने शान्त-गंभीर स्वभावसे सह लेते हैं। आपकी रुचि दर्शनमें विशेष है; अतः सुख-दुःख, ग्लानि आदि विषयों पर पढ़ते ही रहते हैं। दुःखकी व्याख्या करते हुए एक दिन श्री नाहटाजीने लेखक को बताया कि :
दुःखका प्रभाव तो बहुत अच्छा है; वह सजगके लिए वरदान है लेकिन उसका भोग वेदना प्रसू होता है । दुःखके भोगको दशामें मानवको सामान्य परिस्थितिसे थोड़ा ऊपर उठकर तटस्थ दर्शक बननेका अभ्यास करना चाहिये । ऐसा करनेसे दुःखकी असह्य वेदना अपेक्षाकृत न्यून होती जायेगी और शनैः-शनैः गीतामें वणित समत्व योगको स्थिति बनती चलेगी। मनकी अनुकल वेदनीय दशा और उसकी प्रतिकुल वेदनीय स्थिति पर श्री नाहटाजीका गहन अध्ययन है और वे उसे जीवनकी प्रयोगशालामें भी उतारते हैं। आपपर अनेक संकट पड़े हैं, लेकिन आपने अपना प्राकृतिक सन्तुलन नहीं खोया । आपके घर लाखों रुपयोंकी चोरी हो गयी; पत्नीका देहान्त हुआ और हमारी दृष्टिमें आपके घरपर अभूतपूर्व वज्राघात तब हुआ जब आपके घरका समस्त दायित्व संभालने वाली, एकमात्र २५ वर्षीया पुत्रवधू, अत्यन्त सुशील, चरित्रवती, सती, पुत्र धर्मचन्दजी
१. दोहासंख्या 'कवीर वचनावली' प्रकाशक-नागरी प्रचारिणी सभा काशीके अनुसार है । २ श्री जमनालाल जैन वाराणसी-नाहटाजी : एक जीवन्त संग्रहालय ।
५४: अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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