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ध्यानरत पाठक हैं; उतने सजग पाठक कल्याण आदि मासिक पत्रके हैं । आपके धर्म प्रधान लेख भी इसमें प्रायः छपते रहते हैं ।
श्री नाटाजीकी रुचि तीर्थाटनमें विशेष है । वे काम-काज में से समय निकालकर धार्मिकयात्रापर प्रायः चले ही जाते हैं । उनके लिए पाटण और पांडीचेरी, कलकत्ता और कांची, पुरी और पालीताना, सब तीर्थस्थान श्रद्धास्थल हैं। उन्होंने पावापुरी, रामेश्वरम्, मीनाक्षी, वाराणसी, अरविन्द आश्रम, रामकिशन आश्रम, अयोध्या, मथुरा जैसे तीर्थोंमें भ्रमण ही नहीं किया; भक्तिभावके साथ उसका सदुपयोग किया है । श्रीनाहटाजीने ध्यान साधनाका प्रयत्न किया, लेकिन उससे आपके मनकी चंचलता कम नहीं हुई; अतः आपको योगसाधना और उसकी प्रक्रिया छोड़नी पड़ी और मनकी एकाग्रताके लिए स्वाध्यायको अपनाना पड़ा। स्वाध्यायने आपको चित्त वृत्तिका निरोध तो दिया ही, साथ में ज्ञान और आनन्द अनुभूति भी प्रदान की । आपको भक्तिपद सुनने और सुनानेका बड़ा चाव रहता है । भाव-विभोर, भक्ति रस-विस्मृत, भक्त हृदयके सच्चे सगायन उद्गार सुनकर आप खो से जाते हैं; आपकी स्थिति समाधिस्थ योगी जैसी हो जाती है और जब आप स्वयं भक्तिपद गाते हैं तो श्रोतागण मुग्ध होकर रसलीन हो जाता है । सब इच्छा आपके सुमधुर मुखसे अधिक से अधिक सुननेकी रहती है । बम्बई विश्वविद्यालय के गुजराती विभाग के अध्यक्ष डॉ० रमणलाल शाहके स्वसुर एवं श्री ताजमलजी बोथरादि आपके पद-भजनोंके गायन पर मुग्ध हैं । वे साग्रह कहते हैं - " नाहटाजी ! आपके मुखसे वो भजन सुननेका है - बस ! एक तो और सुनाइये ही" और हमारे चरितनायक श्री नाहटाजी गाते हैं; फिर गाते हैं और गाते ही जाते हैं । जिस प्रकार हरि अनादि हैं उनकी कथा भी अनन्त हैं — ठीक उसी प्रकार भावुक भक्त हृदयों के अगाध भाव कोश मंडली में सान्त कब हुए हैं-वही तो एक ऐसा स्थल है जहाँ गाने वालोंको गाते जाने की और सुनने वालोंको अधिक सुनते रहनेकी ललक विवश करती है । भक्त नाहटाकी जो स्थिति बम्बई में है; वही कलकत्ता में भी । श्री हनुमानमलजी बोथरादिके प्रयत्नसे सत्संगका आयोजन किया जाता है; भावुक भक्त मंडली उपस्थित होती है और हमारे चरितनायक श्री नाहटाजी अपने कलकंठोंसे भावविभोर कर देनेवाले पद सुनाते हैं; साथमें उनका हृदयंगमकारी विवेचन भी प्रस्तुत करते हैं । इस भक्ति गोष्ठी में जो अनिर्वचनीय आनन्द उपलब्ध होता है; उसका वर्णन इस तुच्छ लेखनीसे होना नितान्त असंभव है ।
वस्तुतः नाहटाजी के दो ही व्यसन हैं । आध्यात्मिक भक्ति-व्यसन और स्वाध्याय, शोध व विद्याव्यसन । गार्हस्थ्य जीवनमें कितनी ही व्यस्तता हो, इन दोनों व्यसनोंकी प्राप्तिके लिए श्री नाहटाजी समय निकाल ही लेते हैं । धर्मगुरुओं के व्याख्यानश्रवणमें कभी आलस्य नहीं दिखाते, समय पर वहाँ पहुँचते हैं और आद्यन्त श्रवण कर उसपर चिन्तन-मनन करते हुए घर लौटते | नाहटाजी अध्यात्मप्रेमी हैं और आध्यात्मिक दृष्टिसे जो जितना ऊँचा साधक है; उनके हृदयमें उसके लिए उतना ही ऊँचा स्थान है । एक दिन वार्ता प्रसंग में उन्होंने कहा था- "मेरी दृष्टिमें म० गान्धी जैसा महापुरुष इन सदियों में नहीं हुआ - जब मैंने सुना कि महात्माजीको गोली मार दी गयी तो मैं सामायिक करते-करते रो पड़ा – मुझे इतना दुःख और रुदन मेरे पिताजी के निधन पर भी नहीं हुआ था - जितना महात्माजी की हत्या पर " I
गन्धः सुवर्णे, फल मिक्षुदण्डे, नाकारि पुष्पं खलु चन्दनस्य । विद्वान् धनो नृपतिः दीर्घजीवी, धातुः पुरा कोऽपि न बुद्धिदोऽभूत् ॥ सोने में गन्ध, ईमें फल, चन्दन में पुष्प, विद्वान् धनी और नृपतिको विधाताने दीर्घजीवी नहीं
बनाया, क्योंकि वैसा करनेके लिए किसीने उसे सुझाया ही नहीं ।
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जीवन परिचय : ४९
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