________________
करता था । एकबार मिलन-प्रसंगमें योगीराज श्री शान्तिविजयजीने कहा, 'नाहटा आगे आओ । मैं आदेशपालन करता हआ श्री चरणोंके समीप जा बैठा। उन्होंने फरमाया 'तुम ठीक हो नाहटा'। प्रसंग यह था कि श्री ज्ञानसुन्दरजीने ओसवालोंकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें एक गद्य व लेख लिखकर उसका प्रकाशन कराया था। मुझे वे तथ्य प्रामाणिक प्रतीत नहीं हुए और उनका प्रतिवाद किया। योगीराजको इस पूर्वपक्ष और उत्तर
ज्ञिान था और पूर्वापरका विचारकर उन्होंने अपना निर्णय मेरे पक्षमें दिया था।"
धार्मिक संस्मरण-प्रसंगमें श्री नाहटाजीने बताया-"एक बार मैं प्रतिष्ठा-प्रसंगमें उम्मेदपुर गया। वहाँ श्री विजयशांतिसूरिजी व ललितसूरिजीकी देख-रेखमें वह आयोजन बड़ी धूमधामसे हो रहा था। फलोदीके श्री फूलचन्दजी झाबक, पू० शांतिसूरिजीके पास ही बैठे थे। श्री शांतिसूरिजी महाराज आर्यसमाज दम्पतीके सम्मुख मूर्तिपूजाका मंडन प्रस्तुत कर रहे थे । उनकी प्रवहमान वाग्धारा मंडन पक्षके प्रमाणोंका पुंज और आत्मविश्वास संद्योतक अभिव्यक्तिसे स्पष्ट आभास होता था कि कोई अलौकिक शक्ति उन्हें साहाय्य दे रही है।
श्री नाहटाजी ने अपने अनुभव प्रसंगमें बताया कि एक बार उमेदपुरमें श्री विजयशांतिसूरिकी उपस्थितिमें आगे पीछे बैठनेको लेकर वाद-विवाद चला। वागयद्ध और फिर डंडे चले-अनेक लोगोंमें उथलपथल मच गई। लोग उठकर खड़े हो गए । और आचार्य शान्तिसरि जी की शांतिको कोसने लगे। लेकिन गुरु १० शांतिसूरिजी महाराजके भव्य मुख मंडलपर कोई विकृति दष्टिगोचर नहीं हई; जबकि यह समस्त विवाद काण्ड उनके सम्मुख ही हुआ था । नाहटाजी कहने लगे कि 'गुरु महाराजके उस निर्विकार व प्रशान्त व्यक्तित्वका मुझपर बड़ा ही प्रभाव पड़ा । उनको धीरता और सहनशीलता मेरे लिए श्रद्धय थीं। वह विकट परिस्थिति ऐसी ही थी; जिसमें कोई भी वीर अधीर बन जाता; पर गुरुदेव नहीं बने । मेरे मानसमें उसी समय एक सूक्ति जग गयी :
"विकार हेतौ सति विक्रियन्ते, येषां न चेतांसि त एव धीराः" विकार हेतुकी उपस्थितिमें भी जो विकारग्रस्त नहीं होते धीर वही हैं।
श्री नाहटाजी हम्पीके जैन योगी पुरुष श्री सहजानन्दघनजीके आश्रम भी पधारते रहे हैं । बीकानेरके उपनगर उदयरामसर शिववाड़ी आदिमें भी उनके प्रवास आयोजित किये गये। श्री नाहटाजीके कारण अनेक जैन जैनेतर उनसे प्रभावित होते रहे हैं । वे महान् आत्मानुभवी योगीराज थे और योग-साधनाका अच्छा अभ्यास वे जानते तथा बताते थे। बीसवीं शताब्दीके आरंभसे अब तक हुए जैन महापुरुषोंमें आप मूर्धन्य कोटिके सन्त, ज्ञानी और साधक थे।
श्री नाहटाजी ने इसी प्रसंगमें बताया कि भद्रंकरविजयजी महाराज बड़े आध्यात्मिक पुरुष हैं । आपने आबमें उनके दर्शन किये । श्री नाहटाजीका धार्मिक दृष्टिकोण उदार है। आपके लिए किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदायका आध्यात्मिक संत उतना ही पूज्य है; जितना कि जैनधर्मका । आपकी दृष्टि में संत सब समानभावसे पजित होने चाहिये। हमें वस्त्रोंके रंगोंपर ध्यान नहीं देना चाहिये-किसी रंगका वस्त्र हो-वह पवित्रज्ञान पंज एवं सदाचारी अगर है तो हमारा पज्य है। अपने धर्मयात्राप्रसंगमें आपने निरंजन सम्प्रदायके श्री मंगलदासजी महाराज एवं अनेकों साधु-महात्माओंके विद्वानोंके दर्शन किए। गृहस्थी अध्यात्मप्रेमी श्री मणिभाई पादराकरके साथ भी आपका सत्संग होता था। श्री शुभकरणजी बोथरा जयपुरवालोंके साथ आपकी तत्त्वज्ञानकी चर्चा होती रही है और यह चर्चा रात-रातभर चलती रहती । आपने वैदिक धर्मावलम्बी संतों, मठाधीशों-मंडलेश्वरोंको कभी हाथसे नहीं जाने दिया। आप जैन पत्र-पत्रिकाओंके जितने नियमित और
४८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org