SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री नाहटाजी खूब पढ़ते हैं और खूब लिखते हैं । उन्हें 'मूड'का रोग नहीं लगा है । जब चाहा बड़ा, छोटा, गंभीर, हल्का या भारी लेख लिख दिया। किसी भी विषय पर ५०-६० पृष्ठ और वह भी एक बैठकमें लिख देना, आपके लिए सामान्य बात है। प्रतिदिन इतना अधिक लिखने के कारणोंपर प्रकाश डालते हुए आपने जिज्ञासु लेखकको बताया कि 'मैं साठ पत्र-पत्रिकाओंमें नियमित रूपसे लिखता हूँ; क्योंकि सम्पादकोंका विशेष आग्रह रहता है और मैं किसीका आग्रह टालने में बड़ा ही दुर्बल हूँ।' । दूसरे कारण पर प्रकाश डालते हुए आपने बताया कि मेरे पास प्रायः हर प्रकारकी लभ्य, अलभ्य, और दुर्लभ पुस्तकोंका अच्छा संग्रह है। जो भी अन्य ग्रन्थालयसे आते हैं। उन्हें भी संग्रह कर लेता हूँ पत्र-पत्रिकाएँ आती हैं। मैं ज्यों-ज्यों अधिक पढता हूँ: मेरा लेखक मचलता है और मैं लेखनमें संलग्न हो जाता हूँ। आपने अपने अधिक लिखनेके ततीय कारणको उपस्थित करते हुए बताया कि "मैं नया-पुराना सब पढता है। उसमें अनेक विचार ऐसे होते हैं जो मेरे विचारोंसे मेल नहीं खाते । फलस्वरूप वैचारिक मन्थन आरंभ हो जाता है और जब तक मैं अपने उक्त प्रकारके विचारोंको शब्दबद्ध नहीं कर देता, वे मेरे मस्तिष्कसे बाहर होते ही नहीं। इसलिए तद्भिन्न विचारोंके लिए कोई भी चिन्तनका अवसर नहीं मिल पाता । यही कारण है कि मैं अपने विचारोंको लिखकर अपना मस्तिष्क रिक्तवत कर लेता हूँ और तब और किसी विचारको प्रश्रय दे पाता हूँ। अज्ञात सामग्रीको शीघ्रसे शीघ्र प्रकाशमें लाने की अदम्य ललकने भी आपके लेखन कार्यको बढ़ाया है । इस तथ्यको आपने चतुर्थ कारणके रूपमें प्रस्तुत किया। पाँचवें कारणको स्पष्ट करते हुए श्री नाहटाजीने बताया कि 'मेरे जीवनमें नियमितता है-भोजन, शयन, स्वाध्याय, सब नियमबद्ध चलते हैं और लेखन भी नियमके अनुसार अग्रेसर होता है । मेरा अनुभव है कि नियमबद्धतासे काम अधिक होता है और अच्छा होता है। थोड़े समयमें मैं जो अधिक लिख लेता है; इसका बहुत कुछ श्रेय मैं नियमितताको ही देना चाहता हूँ । निरन्तर लगन और विद्याव्यसनने श्री नाहटाजीको अनेक भाषा-लिपियोंका पारंगत ज्ञाता बना दिया है । आप गुजराती, बंगाली, हिन्दी, संस्कृत, अपभ्रंश, प्राकृत और राजस्थानीके अत्यन्त निष्णात विद्वान् हैं । इन भाषाओंमें लिखते भी हैं और पढ़ते भी हैं । भाषाविज्ञान, इतिहास, आलोचना, दर्शन-धर्म, पुरातत्त्व, कला आपके प्रिय विषय हैं। श्री नाहटाजीके साहित्यिक ज्ञान-वैभव, उनकी शोधरुचि और सुदृढ़ लगनके विषयमें उनके भ्रातृपुत्र शोधमनीषी, महान् लेखक-आलोचक और संपादक श्री भंवरलालजी नाहटासे अधिक प्रामाणिक और कौन हो सकता है ? अतः उन्हींकी शब्दावलीसे हमारे चरितनायकके विद्याव्यसनी-सारस्वत स्वरूपको उपसंहृत किया जाता है-"आप साहित्यिकोंके लिए तीर्थरूप हैं और ज्ञानगरिमाकी चलती-फिरती 'इनसाइक्लोपीडिया' हैं । सैकड़ों वर्षों में एकाध व्यक्ति ही क्वचित् इस प्रकारको निष्ठावाला और वह भी व्यापारीवर्गमें प्राप्त हो जाय, तो बहुत समझिये । साधु-सन्तोंकी बात दूसरी है। वे भी इतना समय निरन्तर लगावें; वैसे कम मिलते हैं परंतु गृहस्थोंमें इतनी अप्रमत्त जागरूकता, एक अनुपम आदर्श और दृष्टान्त जैसी ही है।'' हमारे चरितनायक श्री अगरचन्दजी नाहटाका जीवन धर्मसे ओतप्रोत रहा है। आपने धर्मके माध्यमसे अपने जीवनको पवित्र उन्नत और सफल बनानेका निरन्तर प्रयत्न किया है। परम श्रद्धेय जैन आचार्य १. श्री भंवरलाल नाहटाके संस्मरणसे उद्धृत । जीवन परिचय : ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy