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________________ श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजीके ज्ञान एवं वैराग्य भाव-वर्धक भाषणोंका आपपर बड़ा ही प्रभाव पड़ा। आपने उपाध्याय श्री सुखसागरजी एवं मुनि श्री मंगलसागरजीके सारगभित आदेश-उपदेशोंका निरन्तर चिन्तन-मनन किया। उन्हींकी प्रेरणासे आप जैनधर्मके सिद्धान्त-ग्रन्थोंका अध्ययन करने लगे। जब श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी महाराज बीकानेरमें थे तब आपने कुछ चीजोंको आजीवन त्यागनेका गुरु महाराजके सम्मुख संकल्प लिया, जिनमेंसे कतिपय निम्नांकित है-जुआ न खेलना, मांस-मदिरा सेवन न करना, परस्त्रीगमन न करना, रात्रि-भोजन न करना, मधु तथा जमीकन्द न खाना, गाँजा, तम्बाकू, भाँग न पीना, किसी भी दिशामें १५०० कोससे अधिक दूर नहीं जाना और पाँच लाखसे अधिक रुपयोंका संग्रह नहीं करना । (भवन भूमि आदि छोड़कर)। आप बचपनसे ही जैनधर्म ग्रन्थोंको कंठस्थ करने लगे थे। समय-समय पर आनेवाले पर्व और उत्सवोंका नियम-पालन भी आप करते रहे। अपने पूज्य पिता एवं माताजीकी दैनिक धार्मिक क्रियाओंसे प्रेरणा लेकर आपने भी दैनिक, सामायिक प्रतिक्रमण आदि आरम्भ कर दिये थे। चौदह-पन्द्रह वर्षकी उम्रसे आप नित्य सामायिक करने लगे थे। कलकत्तामें सर्वसुखजी नाहटाके साथ नित्य पाठ करते रहनेसे गौतमरास-शत्रुञ्जय रास आदि भी आपको कंठस्थ हो गये थे। स्वर्गीय अग्रज श्री अभयराजजीके पास आपने आठ-नौ वर्षकी ही अष्टमी और चतुर्दशीको हरा न खानेका संकल्प ले लिया था । अठारह वर्षकी उम्रसे ही आप नित्य चौविहार, अभक्ष अनन्तकाय त्याग, अचार, बासीत्याग शीतला सातम आदिको ठण्डा न खाना। आर्द्रा नक्षत्रके बाद आम्रफल न खाना आदि सभी श्रावकोचित नियमोंमें रह रहे हैं। खाने-पीने में आप रसलोलप नहीं है। जब जैसा और जितना मिला, आपने उसे सहर्ष स्वीकार किया। न कभी नमककी शिकायत की और न कभी मिर्चको, न कच्चेकी और न पक्के की। इसीलिये पाचक आपके विषयमें कहते थे"इयां ने जिमावणों सगलासू सोरो। न लण मांग और न मिरच, न साते री शिकायत करै और न ठंडै री।" कभी-कभी आप ऊणोदरी करते हैं । आप प्रातः सायं भोजनके अतिरिक्त दिनमें और कुछ नहीं खाते । प्रायः प्रतिदिन पौरसी रहती है । आप चाय कभी नहीं पीते, दूध भी पोरसी आनेके बाद ही लेते हैं । नवकार श्रीसे पूर्व मुँह में पानी तक नहीं डालते हैं । उपासनामें पूर्ण आस्था रखते हैं । जब सामायिकमें लग जाते हैं, तब चाहे कितना ही बड़ा विघ्न क्यों न हो, सामायिक पूरा करके ही उठते हैं। इस प्रसंगमें एक घटना पठितव्य है एक बार आपके मकानके सामने ही भयंकर अग्निकाण्ड हो गया। पास ही मिट्टीके तेलका गोदाम था। भाईजी वहाँ थे। उन्होंने हमारे चरितनायक श्री नाहटाजीको सूचना दी और वहाँसे चले आनेको कहा लेकिन श्री नाहटाजी आसनसे डिगे नहीं। उन्होंने वहींसे कहा, "मैं अभी सामायिकमें हैं, जो होगा सो होगा। चिन्ता न करें।" थोड़ी देरमें अग्नि शान्त हो गयी और नाहटाजीके मकान गोदाम सुरक्षित बच गये। अब तो प्रायः प्रतिदिन आप सात-आठ सामायिक कर लेते हैं। श्री नाहटाजी मूलतः अध्यात्म क्षेत्रके साधक है। दर्शन, धर्म, प्रतिक्रमण, सामायिकमें उनका मन रमता है । अध्यात्मने ही उन्हें साहित्य-क्षेत्रमें प्रविष्ट किया है। उनकी स्मरणशक्ति सदैव अच्छी रही है । वे बचपनमें सैकड़ों भक्तिपूजाके पद याद कर चुके थे और उन्हें सस्वर गाकर सामायिक पूजा करते थे। शनैः शनैः उनका भक्ति-भजनावलीका भाण्डार बढ़ता ही गया । आपने जिन भक्त कवियोंके भजन और पद याद कर रक्खे थे, उनके प्रामाणिक जीवनको जाननेकी जिज्ञासाने आपमें शोधकी प्रवृत्तिको जन्म दिया। अपने दैनिक पूजा-विधानमें जो भक्ति पद आप पढ़ते, सुनते और भक्त श्रोताओंको सुनाते थे, उससे आपमें पदोंकी मार्मिक ४६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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