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भेजना पड़ता है कि 'भोजनका समय हो गया है, चलिए।' इस प्रकारके एक दो सन्देश तो श्री नाहटाजी 'हाँ-हूँ में टाल देते हैं, लेकिन अपने बड़े भाईका कथन नहीं टाल सकते। तब वे 'बलादाकृष्ट इव' खड़े होकर भोजनार्थ चले जाते हैं और दो-चार ग्रास लेकर झटिति वापिस आप शोधररापानार्थ स्वाध्यायमें लीन हो जाते है। इस प्रकार उनका अधिकांश समय विद्याव्यसनमें ही व्यतीत होता है। उनपर यह उक्ति सर्वतोभावेन चरितार्थ होती है-- विद्याशास्त्रविनोदेन, कालो गच्छति धीमताम् । व्यसनेन तु मूर्खाणां, निद्रया कलहेन च ।
अर्थात् बुद्धिमानोंका समय विद्याशास्त्ररूपी विनोदमें और मूर्खाका निद्रा, कलह और व्यसनमें व्यतीत होता है।
श्री नाहटाजी विमल-मति हैं, इसलिए आप विद्यातीर्थमें अवगाहन करते हैं। वे ज्ञानी भी है, अतः ज्ञानसरोवरमें स्नान करना उन्हें अभीष्ट रहता है। संयमी और साधक होनेके कारण चित्ततीर्थ और श्री । सम्पन्नता उन्हें दानतीर्थका पुण्यभाजन बनाती है। उनके इस विमल चारित्र्यको देखकर निम्नांकित श्लोक स्मृतिपथमें उभर जाता है :
विद्यातीर्थे विमलमतयः, ज्ञानिनः ज्ञानतीर्थे, धारातीर्थे अवनिपतयः, योगिनश्चित्ततीर्थे । पातिव्रत्ये कलयुवतयः, दानतीर्थे धनाढयाः, गंगातीर्थे त्वितरमनुजाः पातकं क्षालयन्ति ।।
विमल-मति मानव विद्यातीर्थों में स्नान करते हैं। ज्ञानी लोग ज्ञानके तीथोंमें; राजा असिधारातीर्थमें; योगी चित्ततीर्थमें, कुलांगनाएँ पतिसेवाव्रतमें और धनाढ्य दानतीर्थमें स्नान करते हैं। केवल साधारण मानव ही गंगातीर्थमें स्नान करते हैं और अपने पाप धोते हैं। .
हमारे चरितनायक श्री नाहटा विशेषतः आध्यात्मिक और विचार-प्रधान साहित्य पढ़ते है । कहानी, उपन्यास, नाटक, यात्रा संस्मरण भी आप पढ़ते हैं। लेकिन यात्रा में। श्री आनन्दघनजी, देवचन्दजी, चिदानन्दजी, राजचन्द्रजी और बुद्धि सागर सूरि आपके प्रिय लेखक-कवि हैं। आपके स्वाध्यायमें उक्त साहित्यकारोंकी रचनाओंका विशेष प्रयोग-उपयोग होता है। उपन्यासकारोंमें आपने चतुरसेन, गुरुदत्त, प्रेमचन्द, प्रसाद और भगवतीप्रसाद वाजपेयीको पढ़ा है। शरत बाबके उपन्यासोंको आपने अपेक्षाकृत्त अधिक रुचिसे पढ़ा है। दर्शन भी आपका प्रिय विषय रहा है।
आप ग्रन्थप्रेमी ऐसे हैं कि जहाँ भी जाते हैं, वहाँके हस्तलिखित संग्रहालयोंको अवश्य देखते हैं। अगर कोई नई पुस्तक उपलब्ध होती है तो उसका आद्यन्त परिचय लिखकर हाथोंहाथ उसे प्रकाशनार्थ भेज देते हैं । आपकी एक धन है कि नईसे नई चीजको पाठक-जगत्के सम्मुख अविलम्ब प्रस्तुत किया जाय । यही कारण है कि किसी नतन तथ्योपलब्धि पर परा लेख लिख और प्रकाशनार्थ प्रेषित करनेके उपरान्त ही नाहटाजी दूसरे काममें लगते हैं।
किसी भी पुस्तकको पढ़नेका श्री नाहटाजीका ढंग अलग-सा है। श्री भंवरलालजी नाहटाके शब्दोंमें "ग्रंथालयमें जो भी ग्रंथ आते हैं, एक बार सभी पर दष्टि-प्रतिलेखन हो जाता है और जो पढ़ने योग्य हैं, उन्हें पूरा पढ़ डालते हैं। उसमें यदि कहीं भी भूल-भ्रान्ति विदित हुई तो तुरत संशोधन अण्डरलाइन आदि कर डालते हैं। विशेष संशोधन योग्य हई तो उन भल-भ्रान्तियोंके सम्बन्धमें लेख भी लिख डालते है। प्रेरणादायक गुणोंके अनुकरण हेतु जनतामें उन ग्रथोंका परिचय कराने वाले नोट भी लिखकर लेखरूपमें प्रकाशित कर देते हैं। कोई भी ज्ञान-भण्डारकी सूची या ग्रंथ जो उनके दृष्टिपथसे निकला है, देखते ही विदित हो जायगा, क्योंकि उस पर काकाजीके संशोधन-टंकण किये रहते हैं।" १. श्री भंवरलालजी नाहटाके संस्मरणसे उद्धृत । ४४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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