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________________ मारवाड़ जंक्शनके एक यतिजीके अधीनस्थ बहुत-सी हस्तलिखित प्रतियोंके बन्डल वहाँके जैनमंदिरकी एक आलमारीमें पड़े थे। मैं उन्हें देखने गया तो उन्होंने चाभी नहीं मिलने आदिका कहकर टाल-मटोल की । पर मुझे उन प्रतियोंको देखना ही था इसलिये मैंने एक पत्थरसे लेकर आलमारीके तालेको किसी तरह खोल डाला पर आलमारीके फाटक खुलते ही मुझे मर्मान्तक दुःख हुआ क्योंकि वर्षाका पानी उस आलमारीमें प्रविष्ट होनेसे सारे ग्रन्थ चिपक कर थेपड़े हो गये थे और क्षुद्र जन्तु वहाँ उत्पन्न हो गये थे कि उन प्रतियोंके हाथ लगाते ही असंख्य जन्तु बाहर भागने लगे । फिर भी यतिजीसे मैंने कहा कि इन नष्ट हुए ग्रन्थोंको भी हमें दे दें पर वे इसके लिए तैयार नहीं हए और दसरी बार जानेपर विदित हआ कि उन सैकड़ों प्रतियोंको पानी में बहा दिया गया।" कहनेकी आवश्यकता नहीं है कि जो शोधरस श्री नाहटा (चाचा-भतीजे)ने आदरणीय जैन आचार्य श्री जिनकृपाचन्द्रजीसूरि व उपा० सुखसागरजीसे आस्वादित किया था, उसकी ललक प्रतिदिन बढ़ती ही गई। अधिकसे अधिक प्राप्त करनेकी प्रबल इच्छासे आप कहाँ-कहाँ नहीं गये? आप श्मशानोंमें भटके, उजड़े-उखड़े ध्वस्त-अवशेष खण्डहरोंमें भयंकर भुजंगमोंके बिलोंपर गहन अंधकारमें खोज की, भूखे-प्यासे, चिलचिलाती धूपमें मीलों पैदल गये, प्राचीन शिलालेखोंको पढ़ा और उनके छायाचित्र प्राप्त किये। युगोंसे बन्द कपाटोंको आपने इस पवित्र कार्य हेतु उद्घाटित किया। कहीं चमगादड़ोंसे स्नेह-टक्कर हुई तो कहीं मधुमक्खियोंसे रार और तकरार । कई इंच जमे धूलदलको हाथोंसे इकट्ठा कर बर्तन में भर उसे शिरपर उठाकर बाहर फेंकनेके अनेक अवसर आपके जीवन में आये, क्योंकि उसके नीचे दबी सरस्वती आपका आह्वान जो कर रही थी। टूटे-फूटे, बन्द घरों और तहखानोंमें विषैले बिच्छु अपना साम्राज्य बना लेते हैं और यह साम्राज्य कभी-कभी बीसों हाथ लम्बा होता है । इस कष्टकर और भयंकर भूगर्भ मार्गको पार करके ही 'अब पड़ तब पड़' जैसी जीर्ण-शीर्ण छतके नीचे कूड़े-करकटमें दबी सरस्वतीको पाना-सम्भालना-टटोलना और फिर उसे बोरियोंमें भरकर मस्तकपर रखकर बाहर निर्जन खंडहर में एकत्र करना और अनेक दिनों तक चनेचबेने खाकर-पानी पीकर सप्ताहान्त कर देना साधारण बात नहीं है। शरीरपर परिधीत वस्त्र धूल धूसरित हो गये हैं, श्रमसीकरों से मिलकर रजकण-दुर्गन्ध देने लगे है, हाथकी अंगुलियोंके नख कच्चे फर्शकी धूलिको साफ करने के कारण सक्षत हो गये हैं, शिरके केश धूलराशिमें छिपकर अदृश्य हो गये हैं, दाढ़ी 'अस्तित्ववाद' की तरह पुरजोर मचलने लगी है, लेकिन शोधरस-मत्त श्री अगरचन्द नाहटाके मुखमण्डल पर एक विशेष आह्लाद है, एक छवि है, एक स्मिति थिरकन है और वह इस कारण कि जिसे आज तक किसीने नहीं पाया, वह उन्होंने प्राप्त कर लिया । जिस प्रकार कवियोंकी अमरगिरामें 'गोकुल गाँवको पैडो ही न्यारो' है, ठीक उसी प्रकार 'शोध लगेको पैंडो भी' अद्भुत है; असामान्य है। शोध-पथिक होने के नाते आप मंदिरोंमें गये, मस्जिदोंमें गये, ग्रन्थी तथा गुरुद्वारेको मस्तक झुकाया और .उपाश्रयोंके भाग्य-विधाताओंका विश्वास अजित किया। इसी हेतु आपको अनेक पुरातत्त्वालय, हस्तलिखित-पुस्तकालय, बृहद्ज्ञान-ग्रन्थालय, सामाजिक संस्थान, व्यक्तिगत प्रतिष्ठान, टटोलने पड़े; पासके, दूरके, गाँवके, शहरके, आस्तिकोंके, नास्तिकोंके जो भी सारस्वत संग्रह थे; वे आपके सर्वस्व थे और वहां आप दौड़े गये। अगर कोई भंडारद्वार दीवारोंसे ढक दिया है तो आप मजदूरों और कारीगरोंके साथ मिलकर उसे तुड़वा रहे हैं, अगर किसी भंडारकी महत्त्वपूर्ण दीवार गिर पड़ी तो उसके स्थानपर नयी दीवार उठाने में मदद कर रहे हैं। ऐसी ही स्थितिमें भवभूतिने कहा था : 'लोकोत्तराणां चेतांसि, को वा विज्ञातुमर्हति' लोकोत्तर पुरुषके चरितको कौन जान सकता है ? जीवन परिचय : ३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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