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हमारे शरीर और कपड़ोंके चिपक जाती। कई घन्टोंतक निरन्तर छंटाईका कार्य करनेके बाद जब हम कमरेसे बाहर आते तो हमारे शरीर और कपड़े इतने गन्दे हो जाते कि बिना नहाये और कपड़ा बदले किसीको मुँह दिखाना कठिन हो जाता । पर कई महीनोंके बाद जब हमें सैकड़ों महत्वपूर्ण ग्रन्थ उस खन्तड़ मेंसे प्राप्त हो गये और बहुत-सी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री मिली तो हमें अपने श्रमका सुफल मिलनेसे बड़ा सन्तोष हुआ।
___उसी समय तिलोक मुनिने उसी रद्दीके ढेर मेंसे छाँट-छाँटकर या पन्नोंको इकट्ठाकर २५ रुपयेमें खरीदे हुए खंतड़को कई बन्डलोंमें बाँधकर रखा था। हमने उनसे यह प्रार्थना की थी कि यह सारा खन्तड़ हमें बेच दें, क्योंकि इसी ढेरके बहुतसे पन्ने हमारे खरीदे हुए संग्रहमें आ चुके हैं। तिलोक मुनिने कहा कि मैं ज्ञानको बेचता नहीं, समय मिलनेपर इसको ठीक करूँगा। हमने उनसे कहा कि बहुत दिनोंसे आपके पास ये बन्डल यों ही पड़े हैं और आपको अबतक समय ही नहीं मिला तो कृपया उनको हमें ही दे दें, हम ठीक कर लेंगे । उनको भी हमारी यह बात जंच गई । फलतः खन्तड़मेंसे संग्रहीत सारे बन्डल हमें निःशुल्क दे दिये और खरीदे हुए ग्रन्थोंका मूल्य ३० रुपया देकर हम वह सारा संग्रह ले आये। इससे हमें अपने यहाँकी अपूर्ण प्रतियोंको पूर्ण करनेमें बड़ी सुविधा हो गई।
इसी खन्तड़का कुछ अंश जो यति मुकनजीने अपने पास रख छोड़ा था; उसमें संवत् १४८८ की लिखी हई एक तपागच्छ-गुर्वावलीकी ३ पत्रोंकी प्रतिके २ पत्र भी थे । इस प्रतिका तीसरा पत्र हमारे खरीदे हुए खन्तड़में आ चुका था। इस महत्वपूर्ण प्रतिको पूर्ण करनेके लिए हमने मुकनजीसे बहुत अनुरोध किया तो अन्तमें उन्होंने उन दो पत्रोंका मूल्य एक रुपया माँगा। हमने इसे भी जीतका ही सौदा समझा और तत्काल मंहमांगा देकर उन दोनों पत्रोंको खरीद लिया। वैसे दो पत्रोंकी अपर्ण प्रतिका दो आना भी कोई नहीं देता. पर हमें तो अपनी प्रतिको पूर्ण जो करना था।
प्राचीन वस्तुओंका संग्रह केवल पैसोंके द्वारा ही नहीं होता। इस कार्यमें काफी मिलनसारिता व होशियारीकी जरूरत होती है जो कार्य पैसे के बलपर नहीं होता उसे सम्पन्न करनेके लिए अन्य उपाय सोचने पड़ते हैं, जो व्यक्ति अपनी अधिकृत वस्तु बेचना नहीं चाहता उससे वह वस्तु कैसे ली जा सकती है। इस सम्बन्धकी हमारी एक रोचक अनुभूति यह है कि उस व्यक्तिकी रुचि एवं प्रकृतिका पता लगाना चाहिये। फिर उसीके अनुसार कोई उपाय करनेपर सफलता मिल सकती है। इस सम्बन्धमें हमारा एक संस्मरण यहाँ दिया जा रहा है।
बीकानेरमें पूनमचन्दजी श्रीमाली नामक एक सज्जन मंत्रविद् विद्वान् थे। मुझे किसीसे विदित हुआ कि उनके यहाँ बहतसे हस्तलिखित जैनग्रन्थोंकी प्रतियाँ पड़ी हैं । तत्काल मैं उनके पास पहुंचा और उन्होंने अपने सहज सौजन्यवश उन प्रतियोंको मुझे दिखा दिया पर वे उन्हें पैसे लेकर देनेवाले नहीं थे। और मुझे किसी तरह भी उनको संग्रह कर लेना ही था। इसलिये श्रीमालीजीको एक दिन मैं अपने घर पर लाया और अपने संग्रहीत वस्तुओंको हमने कितनी सारसम्हालके साथ रखा है, ये दिखाते हए उनसे कहा कि आपको मंत्रशास्त्रका शौक है, अतः हम अपने संग्रहके मंत्रों-संबंधी छाँटे हुए हस्तलिखित पत्रोंको आपको भेंट दे देंगे और आप कृपया हमें अपने यहाँकी प्रतियाँ हमारे संग्रहके लिए दें द। हमारी यह सूझ-बूझ काम कर गई । हमारे संग्रहको सुव्यवस्थित देखकर वे प्रभावित हुए और अपने कामको शीघ्र प्राप्त होनेकी अभिलाषाने उन्हें हमारी इष्ट-सिद्धिके लिए तैयार कर दिया। हम दो बोरोंमें भरकर उनकी प्रतियोंको अपने यहाँ ले आये । इनमेंसे सचित्र प्रतियाँ भी थीं जिनको खरीदनेपर मूल्य शताधिक रुपये होता ।
अब मेरे अविस्मरणीय एवं कटु अनुभवोंको भी सुनिये ।
३८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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