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________________ समयसुन्दरजी की 'पाप छत्तीसी' नामक एक जी नाहर, कलकत्ता, की लायब्ररीमें होने की सूचना देखने के लिए हम श्री नाहरजीके यहाँ पहुँचे और उनका संग्रहालय तथा कला भवन देखकर हमारे मन में भी प्राचीन कलापूर्ण वस्तुओंके संग्रहकी रुचि उत्पन्न हुई । इन दोनों प्रसंगों का ही यह परिणाम है कि अब तक हमने करीब बीस हजार हस्तलिखित प्रतियाँ अपने बड़े भाई स्व० अभयराजजी नाहटाके नामसे स्थापित " अभय जैन ग्रन्थालय' में संग्रहीत कर ली हैं और अपने पूज्य पिताजीकी स्मृतिमें स्थापित "श्री शंकरदान नाहटा कला भवन' में हजारों चित्र, सैकड़ों सिक्के, मूर्तियां और अनेक कला-पूर्ण प्राचीन वस्तुओं का संग्रह कर सके हैं । इस संग्रहकार्य में हमें जो सुखकर एवं कटु अनुभव हुए, उनमें कुछ यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं रचनाकी हस्तलिखित प्रति कला-मर्मज्ञ स्व ० पूर्णचन्द श्री मोहनलाल देसाईने अपने निबन्ध में दी थी, उसे बीकानेर के रांगड़ी चौकमें स्थित बड़े उपाश्रयमें करीब १०० वर्ष पूर्व शताधिक यति रहते थे और उनके पास हस्तलिखित प्रतियाँ भी काफी परिमाण में थीं। उनमें से कुछ यतियोंका संग्रह तो बृहद् ज्ञान भण्डारमें सुरक्षित हो गया है, पर लावारिस यतियोंके जो ग्रन्थ एक पंचायती भण्डारमें पड़े थे, उचित सार सम्हालके अभाव में वह विशिष्ट संग्रह अव्यवस्थित हो गया और उसे रद्दी समझकर एक बाड़े में डाल दिया गया था । उनमें से कुछ तो कृपा चन्द्रसूरि के शिष्य तिलोक मुनिने अपने पास इकट्ठे करके रख लिये और कुछ मुकनजी यति बटोर लिये । एक बार भँवरलालने उसके खन्तड़के कुछ पन्नोंको देखा तो उसे रद्दी समझकर डाले हुए ढेर में बहुत सी महत्वकी सामग्री मिलनेकी सम्भावना दिखाई दी । उसने उसी उपाश्रयके यति पन्नालाल - जीसे पूछा कि यह खन्तड़ इस तरह क्यों डाल रखा है ? और इसके संग्रहका क्या प्रयोजन है ? तो पन्नालालजीने कहा : यह रद्दी है पखाल भर पानी लगेगा, यति लोग इसका कूड़ा बना लेंगे । यह सुनकर भँवरलालको बड़ा दुःख हुआ और उसने कहा कि इस कूटलेका जो भी मुनासिब हो पैसा दिलवाकर जिन्होंने इसे कूटा बनानेके लिये बटोर रखा है, उनसे हमें दिलवा दें । यति पन्नालालजीने मुकुनजीके एक शिष्यके अधिकार में जितना भी वह खन्तड़ (अव्यवस्थित हस्तलिखित प्रतियोंका ढेर ) था, हमें खूब सस्ते में दिलवा दिया । कुल २३ रुपये में कई छबड़ों-भरे ग्रन्थ हमारे हस्तगत हो गये । इस सौदेकी एक शर्तके अनुसार आचार्यों द्वारा यतियोंको दिये हुए सैकड़ों आदेशपत्र हमें वापस लौटाने पड़े जो कि तत्कालीन इतिवृत्त की जानकारी के लिए बहुत ही उपयोगी थे। फिर भी उस संग्रहमें राजाओंके दिये हुए कई खास रुक्के, मस्त योगी ज्ञानसागरजी की कृतियोंके विकीर्ण पत्र एवं खरडे आदि काफी महत्वको वस्तुएँ हमें प्राप्त हुई । पर इस संग्रहको सुव्यवस्थित करने में हमें जो कठिन परिश्रम करना पड़ा वह भी चिरस्मरणीय रहेगा । हस्तलिखित प्रतियाँ खुले पत्रोंके रूपमें होती हैं इसलिये उनके पन्ने इधर-उधर हो जानेपर विशेषतः अनेक प्रतियोंका जब ढेर कर दिया जाता है तो, उनमेंसे एक-एक पत्रको छाँटकर उस प्रतिको पूर्ण करना बहुत ही समय एवं श्रमसाध्य बन जाता है । हमने उन अस्त-व्यस्त पत्रोंको ठीक करनेके लिए एक पूरा कमरा रोका और आदि--पत्र, मध्यपत्र, अन्तपत्र, भाषा, लिपि, टंचपाठ, त्रिपाठ आदि शैलियोंके पन्नोंके अलगअलग थाग लगाये और एक-एक पत्रको छाँट-छाँटकर सैकड़ों प्रतियोंको पूर्ण किया । ज्योंही एक प्रति पूर्ण होती, हमारा मन उत्साहसे भर जाता और इस तरह पूरी तत्परता एवं उत्साह के साथ उस कार्य में कई महीने जुटे रहे। बीच-बीच में भोलापक्षी - कबूतर आकर अपने पंखोंकी फरफराहटसे हमारे छाँटे हुए पन्नोंको जब उड़ाकर हमारे कामको गुड़-गोबर कर देता तो हमें इसपर बड़ा रोष आता, पर निरुपाय थे क्योंकि प्रकाशके लिए कमरे का दरवाजा खुला रखना आवश्यक था। गर्मी के दिनोंमें उन पत्रोंको छाँटते हुए हमारा शरीर पसीने से तरबतर हो जाता और उन हस्तलिखित प्रतियोंके साथ जो बहुत-सी धूलकी गर्दी लगी हुई थी वह जीवन परिचय : ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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