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प्राचीन सामग्रीको अच्छी तरहसे पैक करके सुरक्षित पंजीकृत (Reagistered) डाकमें भेजना चाहिए। यदि उपेक्षा करनेसे वह इतस्ततः हो जाय तो उसका हमेशा धोखा रह जाता है। हीराणंदसूरिके कलिकालरासकी प्राचीन प्रति, जो हमारे संग्रहमें थी, देसाई महोदयके बंबई मंगाने पर भेजी गई । उस दिन डाकघर बंद हो गया था मैंने बुक पोस्टसे ही वह पोस्ट कर दी। वह देसाई महोदयको न मिली और वे डाक विभागसे पत्र व्यवहार करके भी प्राप्त करने में असफल रहे।
एक-एक पत्रको बड़ी सावधानीसे देखनेपर संग्राहकको उसमें कुछ न कुछ मिल ही जाता है। एक २ इंचके पन्नेमें हमें कुछ बारीक अक्षरोंमें लिखे दोहे मिले, जिससे ज्ञानसारजीके माता-पिताका नाम, जन्मस्थान, संवत्, दीक्षाकाल, गहनाम, राज्यसंबंध आदि प्राप्त हो गये । इसी प्रकार कितनी ही महत्वपूर्ण सामग्री इन विकीर्ण पत्रोंमें, गते (पूठे) बनाये हुए पत्रोंमें मिल जाती है। जिसे पुरातत्व, कला-साहित्यका चस्का लग गया हो उसे आजके सिनेमा और मौज-शौक आदि सब फीके लगते हैं, यह कार्य जितना ही विशाल है उतना ही मनोरंजक और सुरुचिपूर्ण है । जब इसमें प्रविष्ट हो जाते हैं तो भूख-प्यास थकावट सब विस्मृत हो जाती है। घंटों कठिन परिश्रम करने पर भी तमन्ना रहती है कि और अधिक कार्य करें। इसमें नई-नई शैली, नये-नये शब्द, नये-नये तथ्योंका वह भंडार भरा पड़ा है, जो पूर्वकालकी सामाजिक-साहित्यिक-धार्मिक और कलापक्षकी जीवित गरिमाका प्रत्यक्षीकरण करा देती है । ऐतिहासिक पृष्ठभूमिपर आये हुए माना छायाचित्र और धरातलके स्तरपर चढ़कर जो परिवर्तन आया है, उसकी सूक्ष्म और पारदर्शी दृष्टि प्राप्त हो जाती है और प्राप्त हो जाता है वह टेलिस्कोप जिसमें भारतीय जनताकी हृदय की धड़कनें, तद्वर्ती भावमियाँ और सांस्कृतिक सूक्ष्म विचार कणोंका तुमुल आन्दोलन जो मानवको आत्मविभोर कर देता है। इसे कहते हैं :
"कैसे छूटे; शोधरस लागी ?" रामरसमें जैसे विघ्नोंका अम्बार अवरोधक बनकर आ जाता है ? परंत भक्तने उसकी कब परवाह की है ? शोध-रस लगे श्री नाहटाको भी इस साधनामें अनेक मधुर-कटु अनुभव हुए हैं और अब भी होते जा रहे हैं लेकिन वह लगन छूटनी तो दूर रही, न्यून भी नहीं, अनुदिन पीन होती जा रही है। श्री अगरचन्द जी नाहटाके शब्दोंमें :___ "प्राचीन एवं कला-पूर्ण वस्तुओंका संग्रह एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य है । प्राचीन संस्कृतिका पता लगानेके लिए यह अत्यन्त आवश्यक भी है। परन्तु यह संग्रह-कार्य कोई साधारण कार्य नहीं है। इसके लिए काफी सूझ-बूझ, परख, धैर्य, लगन और प्रभविष्णुताकी आवश्यकता है । दूसरे शब्दोंमें कहा जाय तो संग्रहकार्य भी एक कला है। गीतामें कहा है "कर्ममें कुशलता ही कला है' और संग्राहकका कई बातोंमें कुशल होना बहुत ही जरूरी है।
अपने जीवनके विगत ३५ वर्ष मैंने शोध एवं संग्रहके कार्यमें बिताये है और उस कार्य में काफी प्रेरणादायक और कटु-अनुभव भी हुए हैं। यहाँ उनमेंसे थोड़ेसे अनुभव या संस्मरण दिये जा रहे हैं। मेरे इस कार्य में मेरे भातपुत्र भंवरलाल नाहटाका भी सदा सहयोग रहा है।
वि० संवत् १९८४ को वसन्त-पंचमीकी जैनाचार्य जिनकृपाचन्द्रसूरिजीका बीकानेर पधारना हआ और वे हमारी नानाजीकी कोटड़ीमें ही विराजे। उनके घनिष्ठ एवं निकट सम्पर्क में हमें बहत बड़ी धार्मिक एवं साहित्यिक प्रेरणा मिली। राजस्थानके जैनकवि समयसुन्दर संबंधी मोहनलाल देसाईका एक निबन्ध उसी समय हमें पढ़नेको मिला और उससे प्रेरणा पाकर उनकी जीवनी और रचनाओंकी खोजका काम प्रारम्भ कर दिया गया । उस प्रसंगमें सर्वप्रथम बीकानेरके हस्तलिखित ग्रन्थ-भण्डारोंका अवलोकन करते हुए हमें प्राचीन हस्तलिखित प्रतियोंका महत्व विदित हआ और उनके संग्रह करनेकी प्रेरणा भी मिली।
३६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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