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________________ वपन हो चुका था, अंकुरणकी स्थिति भी थी; लेकिन उसे संवर्द्धक सुजलकी समीहा थी । उसे ऐसे संरक्षककी भी अपेक्षा थी, जो अपने कुशल वरद हाथोंसे उसे उत्साहित करता, साहित्य और अध्यात्मके क्षेत्रमें डगमगाते पैरोंको संबल देता और निराशा के अन्धकार में स्वयं प्रकाशपुंज बनकर उपस्थित हो जाता । तृषातुरको शीतल सलिल पानसे, क्षुधातुरको हृद्य भोजन अवाप्ति से और अभ्यर्थीको इष्ट वस्तु उपलब्धिसे जो परम आनन्द मिलता है, वही परमानन्द ज्ञानसागर जैनाचार्य श्री जिनकृपाचन्द्रजी सूरिके सुखद - शान्त-सौम्य मुखमंडलको देखकर श्री नाहटा जैसे ज्ञानपिपासुको हुआ । आप गुरु चरणों में चित्त लगाने लगे, उनके अगाध ज्ञानगुंफित प्रवचन सुनने लगे और अधिक से अधिक समय उनके पास बैठकर अपनी शंकाओंका समाधान प्राप्त करने लगे । श्री गुरु- महाराजके अत्यन्त प्रभावक और प्रेरक - महामहिम व्यक्तित्वने आपके भावसागर में उत्ताल तरंगें उत्पन्न कर दीं, आपकी श्रद्धापूरित भावधारा शब्दों का परिधान अपनाकर प्रवाहित होने लगी, आप परम श्रद्धालु भक्त कवि श्रावक बन गये । गुरु महाराजके व्याख्यान अवसर पर आपको स्वनिर्मित गेरुली सुनानेका शुभ अवसर प्राप्त होता । अनेक भजन भी आप बनाते और भक्त श्रावकोंको गुरुगण सान्निध्य में गाकर सुनाते । कंठकी मधुरिमा, वाणीका आकर्षण और गायक नाहटाकी भाव-विभोर मनःस्थिति, जनसागरको आत्मविस्मृत कर देती । नाहटा मुखसे भजन - गीत अधिक सुननेकी उसमें ललक रहती और गुरु महाराज भी युवक नाहटाकी भक्ति - मूलक श्रद्धासे संतोषलाभ करते । पितृश्री शंकरदान नाहटा स्वयं अपने कानोंसे सुपुत्रकी भावभीनी भक्तिरचनाएं और उनकी मुक्तकंठ प्रशंसा सुन चुके थे । इसलिए वे फूले नहीं समाते और अपने कविसम्राट्को मन ही मन कुशल-क्षेमवान् रहनेका मंगल आशीष देते । श्री भर्तृहरिने ऐसे ही पुत्रोंको 'सुपुत्र' की संज्ञा है पुत्रः " " प्रीणाति यः सुचरितैः पितरं स "पुत्र वही है जो अपने सुचरितसे पिताको प्रसन्न रखता है" जिस प्रकार विकसित - सुगंधित सुवृक्ष समस्त वन-उपवनको सुवासित कर देता है, उसी प्रकार सुपुत्र अपने श्रद्धावनत सौम्य स्वभाव, वरेण्य विचार वीथ और शिष्ट भावाचरण, अभिव्यंजनसे वंशकी कमनीय कीर्त्तिको चतुर्दिक् प्रसरित करता हैएकेन हि वृक्षेण, पुष्पितेन सुगन्धिना । वासितं तद्वनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं यथा ॥ -- , इसी अवसरपर युवक नाहटा को अपने विचार व्यक्त करनेका सुन्दर अवसर मिलता। बचपन से ही श्लोक. गाथाएँ, चरित्रावली और शास्त्रोंका जो गूढ़ ज्ञान आप अर्जित कर चुके थे और सुदीर्घ अवधिसे जो धार्मिक प्रक्रिया प्रशिक्षण आप प्राप्त कर रहे थे, मानों उस समस्त हृदयंगम कृत निदिध्यासनको प्रस्तुत करनेका यह परीक्षण अवसर था, गुरुदेव से उस प्राप्त ज्ञान- ज्योतिपर शुद्ध और सहीकी मोहर लगवानी थी और जो • कुछ फल्गु था उसे दूर करना था । प्राप्तको सुरक्षित रखने और प्राप्यको प्राप्त करने की विधि भी सीखनी थी । इसी भावनासे आप गुरु महाराजके पण्डित शिष्य उपा० सुखसागरजी के पास अधिकसे अधिक बैठे रहते और अहर्निश ज्ञानचर्चा करके अपने विचारोंका परिष्कार करते । सूर्यकी दिव्य रश्मियाँ भूतलके समस्त पदार्थों पर समान भावसे पड़ती हैं, लेकिन उनसे शिलाखंड उतना नहीं चमकता जितना निर्मल दर्पणांश । ठीक उसी प्रकार गुरु-मंडलीकी उपदेशावली समस्त श्रोताओंके लिए एक जैसी ही थी लेकिन उसका जैसा विस्मयोत्पादक- गूढ़ प्रभाव हमारे चरितनायक पर पड़ा, वैसा प्रभाव इतर श्रोता श्रावकों पर उस रूप में कदाचित् ही पड़ा हो । हिमकरकी शीत- रश्मियोंसे पाषाण- कठोर चन्द्रकान्त मणि, प्रभाकरकी तिग्म- रश्मियोंसे कमलदल अवलि और आर्त-दुखी दीनकी वाणी जैसे दीनबन्धु दीनदयालको द्रवित कर देती है, उसी प्रकार जीवन परिचय : ३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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