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________________ युवक नाहटाकी प्रबल जिज्ञासाने ज्ञानगुरुओंके ममताविरक्त, वैराग्यरसैकमत्त मानसको भी द्रवित कर दिया और वे अपने पात्र श्रावकको इस प्रकार ज्ञानामृत पिलाने लगे जिस प्रकार धेनु वत्सको पिलाती है । महापुरुष वाणी से कम कहते हैं । उनकी तपःपूत मनोभावनाका प्रभाव बड़ा प्रबल होता है और जिसपर वह प्रभाव पड़ जाता है; वह उसीकी मस्ती में दिन-रात छका रहता है । रामकृष्ण परमहंसने नरेन्द्रनाथको क्या कहा था ? कुछ भी तो नहीं, लेकिन उनके व्यक्तित्वके प्रभावने नरेन्द्रकों दीवाना बना दिया; अर्थात् अध्यात्मने विज्ञानको अभिभूत कर दिया। श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी व उपा० सुखसागरने अपनी वाणीसे युवक नाहटाको चाहे कुछ न कहा हो, लेकिन किसी न किसी रूपमें उनके सम्मुख श्री साईका शोधपूर्ण लेख प्रस्तुत होना गुरुदेव के इसी मूकभावका व्यंजक था कि "हे युवक ! तुम अन्तः सलिला सरस्वतीको प्रकट करो, विगुण, अनर्ह दंभियोंके पाश में आबद्ध, अपमानित, पाताल गर्भान्धकार पतित- मूच्छित सरस्वतीका उद्धार करो और उसे नव्य-जीवन देकर सारस्वत-संसार में सम्मान भाजन बनाओ ।" हृदयके उद्गारोंको हृदयवाले ही समझते हैं । गुरुवरने जिस मूकभावनाका सम्प्रेषण उपयुक्त पात्र श्री नाटाकी ओर किया था, उसे युवक नाहटा के हृदय ग्राहकने चुपचाप ग्रहण कर लिया । गुरु-शिष्योंके अन्तरात्मा प्रेरित इस अनुबन्धको समझनेवाले तो समझ रहे थे, पर जो नहीं समझे वे नहीं ही समझे । वे 'अनाड़ी' थे और कदाचित् ' हैं ' भी । उस ऐतिहासिक दिनके पश्चात् श्री युवक नाहटा - 'शोध संसार' के जिज्ञासु छात्र बन गये । गुरुदेवकी मूकभावना शोधोन्मुख युवक नाहटाके मानस पर किस प्रकार अनुदिन जादूई असर करती रही, वह कम विस्मयोत्पादक नहीं है। श्री अंगरचन्दजी व श्री भँवरलालजी नाहटाके शब्दों में ही यह प्रसंग सविस्तर पठनीय है और उसका अन्तिम अंश अवश्य ध्यातव्य है क्योंकि हमारी इस मधुर कल्पनाका उत्पत्ति केन्द्र वही है । "लगभग चालीस वर्षसे ऊपर की बात है हमारे दीवानखाने की अलमारी में थोड़ी-सी पुस्तकें थीं । इनमें अधिकांश अंग्रेजी पाठ्यपुस्तकें थीं । एक हस्तलिखित पोथिया भी रखा हुआ था, जिसमें जिनराजसूरिजीकी चौबीसी आदि कृतियाँ थीं । कागज जीर्णशीर्ण बड़कनेवाले थे । यह हमारे घरकी हस्तलिखित संग्रहकी प्रथम पुस्तक थी जो उपेक्षित होते हुए भी हमारे विद्यार्थी जीवनमें संभालकर रखी जाती रही। जब जिनकृपाचन्द्रसूरिजीका सं० १८८४ की वसंतपंचमीको आगमन हुआ और कुछ धार्मिक साहित्य-अध्ययनकी ओर हमारी रुचि हुई तो महाकवि समयसुन्दर के साहित्यसंग्रहके निमित्त नानाहस्तलिखित संग्रहों को देखना प्रारम्भ किया । महावीर मंडलके कुछ गुटके मंगवाकर देखे तो उसमें सं० १८०४ का वह गुटका मिला जिसमें समयसुन्दरजी की शताधिक कृतियाँ थीं । चिपके हुए पत्रोंको यत्नपूर्वक खोलकर नकलें शुरू कीं । दूसरी भी कितनी ही कृतियोंकी नकलें की गयीं । इस प्रकार पुरानी लिपि और ग्रन्थोंके परिशीलनमें हमारा प्रवेश हुआ । इस समय हमारा कार्य केवल कृतियों को देखकर आदि अंत नोट कर लेने व नकल कर लेनेतक ही सीमित था । इतिहास के अभिलेखादि इतर साधनों पर भी हमारी दृष्टि रहती और उन्हें भी संग्रह करनेका प्रयत्न करते । सं० १९८७ में चिन्तामणिजी के भंडारकी प्रतिमाएँ निकलीं और स्वर्गीय मो० द० देसाईको आमन्त्रित किया गया, परन्तु वे राजकोट आकर सम्भवतः साली के लग्न समारोहमें रुक गये और बीकानेर नहीं आ सके । हमने प्रतिमाओंके लेख पढ़े । कतिपय संवतोल्लेखवाले लेख थे उनकी नकल भी की गई। वे बम्बईके सांज वर्तमान पत्रमें श्री देसाईके मार्फत प्रकाशित भी किये गये। इसी समय हमने बीकानेर के समस्तमन्दिरोंके अभिलेखोंका संग्रह कर लिया और ओझाजी जैसे विद्वानोंसे भी शिललेख आदिका अनुभव प्राप्त किया । समयसुन्दरजी के साहित्यका संग्रह करते समय सुन्दरजीकृत पाप छत्तीसीके नामसे देसाई द्वारा श्री ३२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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