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________________ गण्डरीवालो आंवतो गिद्दी आर डाक देवतो, लोग गण्डेरी दो च्यार' पईसां री लेवता पण लंबू सेठ न गण्डेरी बड़ी चिड़ ही । " श्री हजारीमलजी बोथराने श्री नाहटाजीको माल मिलाने, कपड़ेकी गाँठें बाँधने आदि काममें, शिक्षित किया । एक बार बोलपुरकी दूकान में हमारे चरितनायकने चावल खरीद के हिसाब में सौ रुपये अधिक दे दिये, जिससे रुपये घट गये । मामाजी मंगलचंदजीसे बहुत खरी-खोटी सुनने को मिली । उस दिनसे आपको अनुभव हो गया कि रुपये-पैसे का हिसाब सावधानीसे रखना चाहिये । एक बार कलकत्ते में भी रुपये गिनते समय हजार रुपयेकी गड्डो आलमारीके नीचे खिसक गई । खूब डाँट फटकार पड़ी। इस प्रकार श्री नाहटा रुपये-पैसे के मामले में सदाके लिए सजग हो गये । उन्होंने तबसे लेकर आज तक इस प्रकारको घटनाकी पुनरावृत्ति नहीं होने दी । श्री नाटाजी जब सोलह मासकी प्रथम परदेश यात्रा करके बीकानेर लौटे तो उनके विवाहकी तैयारियाँ हो रही थीं । मिति आषाढ़ कृष्णा १२ संवत् १९८२ में आपका विवाह सम्पादित हुआ । आपके ससुर श्री मोसीदासजी सेठिया थे । पत्नीका नाम पन्नीबाई था । आप साधारण पढ़ी लिखी धार्मिक स्वभावकी पतिव्रता महिला थीं । चूँकि उनका पितृपक्ष तेरह-पंथको मानता था, इसलिये श्री नाहटाजीको मूर्तिपूजक व खरतरगच्छके ढाँचे में ढालनेके लिए प्रयत्न करना पड़ा। श्री नाहटाजी अपनी अर्धाङ्गिनीको प्रतिदिन पढ़ाते और याद करनेके लिये पाठ देते । घर वाले इसका विरोध करते, लेकिन नाहटाजी अपने संकल्प पर अडिग रहे । घर वाले कहते, पढ़ाकर क्या बैरिस्टर बनाना है ? अथवा हुँडी नावेंका काम करवाना है ? ज्यों-ज्यों घर वाले विरोध करते, नाहटाजी अधिक उत्साहके साथ पढ़ाते । अन्त में नाहटाजी अपने कार्यमें सफल हुए । उनकी पत्नी पत्र लिख लेतीं, घरका हिसाब-किताब रख लेतीं और खरतरगच्छके धार्मिक दैनिक कृत्य भी सम्पादित कर लेतीं । श्रीमती पन्नीबाईका जन्म संवत् १९७० में हुआ था, वे नाहटाजीसे लगभग ढाई वर्ष छोटी थीं । हमारे चरितनायकके भ्रातृपुत्र श्री भँवरलालजी नाहटाका विवाह भी आषाढ़ कृष्णा १२ संवत् १९८३को ही हुआ । विवाहोपरान्त दोनों ही परदेश के लिए रवाना होकर कलकत्ता पहुँच गये । श्री भंवरलालजी नाहटा के शब्दों में : "हम लोग फिर कलकत्ता आ गये । काम काज गद्दी पे सिखते-करते प्रतिदिन मन्दिर जानेका नियम तो था ही, सामायिक भी प्रतिदिन करते । सरबसुखजी नाहटा के साथ 'शत्रु'जय रास, गौतमरास' आदि बोलने से कंठस्थ हो गये । काकाजी श्री अगरचन्दजी सिलहट रहने लगे ।" संवत् १९८४का वर्ष हमारे चरितनायक के जीवन में सर्वाधिक महत्त्व रखता है । यह वही वरेण्य वर्ष है; जिसने श्री नाहटाजीको इतिहास, कला, विद्वत्ता और धार्मिकता के महनीय पदका गौरव दिलाया और उनके जीवनकी धाराको नव्य दिशा प्रदान की । इस प्रसंग में अगर हम यह भी कह दें तो संभवतः अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यही वह शुभ वर्ष था जिसने श्री नाहटाजीको अन्धकारसे प्रकाशकी ओर, असद्से सकी ओर और मृत्युसे अगरताकी ओर उन्मुख किया । मात्र लक्ष्मी के संग्रहका स्वप्न देखनेवाला प्राणो सरस्वतीका अद्वितीय साधक और लक्ष्मीका भी भाजन बना रहकर एक प्रेरक पथ प्रशस्त करने में संलग्न हो गया । परम सौभाग्यका विषय था कि श्री जिनकृपाचन्द्रजी सूरि वसन्त पंचमी संवत् १९८४ को बीकानेर पधारे और वे नाहटा परिवारकी कोठड़ी में ही विराजे । हमारे चरित - नायक के लिए अपने जीवनको सार्थक बनाने का यह अनुपम अवसर था । उसके संस्कार सरस्वती साधना, धार्मिक ग्रंथ पठन, प्रवचन और काव्य प्रवचनके तो थे ही, उन्हें तब विशेष प्रेरक तत्वकी ही आवश्यकता थी । या यों कहें कि श्रेष्ठ धरा में बीज १. श्री भँवरलाल नाहटा —— बानगी पृष्ठ १३ । ३० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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