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________________ सहायक नहीं, पर इस वाक्यने वह कमी पूरी की। अभ्यास चालू रखा और लिपियां एवं भाषाओंका विषयपथ सरल हो गया। लाखसे अधिद हस्तलिखित ग्रन्थ इधर-उधर भारतवर्ष के अनेक ज्ञान-भण्डारोंमें देखनेका सुअवसर मुझे मिला। मैं बराबर इसी दोहेको अपना पथ-सम्बल बनाये हुए अडिगभावसे, अस्खलित चरणोंसे आगे बढ़ता चला और आज भी मेरे जीवनका यह ध्रुव-सूत्र बन मेरे पथमें प्रकाश फैला रहा है । दूसरा दोहा, जो मेरे स्मृति-पटलपर गहरा खुद गया है काल करै सो आज कर, आज करे सो अब्ब । पलमें परलै होयगी, बहुरि करेगो कब्ब ।। इस दोहेके अनुसार मेरी जीवन-धारा प्रवाहित हो रही है और मेरी आदत पड़ गई है कि आजका काम आज ही निबटाना। कलके लिए टालना मुझे सुहाता ही नहीं। बहुतसे व्यक्ति मुझे साश्चर्य पूछते हैं कि आप इतना अधिक कार्य कैसे कर लेते हैं ? इसका प्रत्युत्तर इसी दोहेसे मिल जाता है कि जितना काम आज कर सकते हो, उसे कर ही डालनेका प्रयत्न करो, कलके लिए न टालो। भारतके कोने-कोने में मुझे विद्वानोंका ऐसा स्नेह प्राप्त है कि उनकी आज्ञाएँ, शंकाएँ और जिज्ञासाएँ आती ही रहती हैं। हिन्दी-संसारके सामान्य पंडितोंका ही नहीं, गुजराती, मराठी भाषाके सुधोजनोंका भी स्नेह प्राप्त है। अतः उनके पत्र भी बराबर आते रहते है। आज जितने पत्र मिले उनका जवाब आज ही देना, यह मेरा नित्यका कार्यक्रम सा बन गया है। जब किसी पत्रकी ओरसे मुझे लेखके लिये लिखा जाता है, तो उसके लिए तुरन्त लेख तैयार करना और भेजना मैं अपना कर्तव्य समझता हैं । काम बढ़ जानेपर भारी हो जाता है। उसे निपटाते रहनेसे स्वपरकी असुविधा नहीं होती। काम होता भी अधिक है। कभी-कभी एक पत्रके उत्तरके लिए मुझे घण्टों अपने ग्रन्थागारका अवगाहन करना पड़ता है। वह मैं करता हूँ परंतु पत्रका उत्तर यथा संभव उसी दिन देनेका प्रयत्न रहता है। साथ ही विद्वानोंको अपने संग्रहालयोंसे मौके-मौके पर हस्त प्रतियां भी भेजनेका कार्य रहता है। एक बात यहाँ स्पष्ट लिख दूं कि जब मुझे किसीसे कुछ मंगाना पड़ता है तो अधिकांश विद्वानोंको बराबर लिखना पड़ता है, तब कहीं उनकी तंद्रा भंग होती है। बहुत थोड़े विद्वान ऐसे हैं, जो दीर्घ-सूत्री न हों। मुझे जिनसे तुरन्त उत्तर मिलते रहते हैं उनमें भण्डारकर ओरिएंटल रिसर्च इन्स्टीयूटके क्यूरेटर श्री० पी० के० गोड़ेका नाम शीर्ष-स्थानीय है। मेरे जीवनका तीसरा सूत्र यह है रे मन ! अप्पहु खंच करि; चिंता जाल मप्पाडि । फल तित्तउ हिज पामिसइ, जित्तउ लिहउ लिलाड़ि ।। (रे मन ! अपने आपको खींच ले, अपने आपको चिन्तामें न फंसा। तुम्हे इतना फल तो मिल ही जायेगा, जितना तुम्हारे ललाटमें लिखा है ।) यह पद्य जैन-कथा श्रीपालचरित्रका है और यह भी मेरे दैनिक जीवन में, गृहस्थ जीवनमें एवं व्यापार व्यवसायके जीवन में शक्तिका प्रबल स्रोत बन गया है। मेरा मन जब फलके लिए और भविष्यकी चिन्तासे आतुर होने लगता है, उस समय यह मुझे बड़ा बल देता है। उस समय इसका स्मरण कर में सुस्थिरता और शांतिका अनुभव करता हूँ। गीताका नैष्कर्म्यभाव और अनासक्ति योगका सन्देश मझे इसी दोहेसे मिल जाता है । किसीको सम्भवतः इस दोहेमें भाग्यवादकी ध्वनि मिले परन्तु मझे तो यह दोहा हमेशा कर्मनिरत जीवन में फलाकांक्षाकी तष्णासे बचाता रहता है। इससे मैं चिन्ताके भ्रमरजालमें नहीं फँसता और संकल्प-विकल्प कम होकर निराकुलता और शांतिका अनुभव करता हूँ। २६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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