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अपने भावी जीवनके कार्यक्रम में मैं अब एक चौथे दोहेकी इस पंक्तिको स्थान देना चाहता है
“एक साधै सब सधै" समस्त साधनाका केन्द्र-बिन्दु आत्मा ही होना चाहिए। आत्माको भूलकर अन्य कोई भी साधना करना बेकार है । अतः आत्मानुभवकी साधना करना ही मेरा लक्ष्य है।
शालीय-जीवनके आसपास श्री नाहटा कविताके नामपर 'तुकबन्दी' करने लग गये थे। आपकी कविताका विषय 'धर्म' होता था। पितृश्री शंकरदानजी नाहटा व बड़े भाई भैरूदासजी कविप्रवृत्तिको देखकर आपको ‘कविसम्राट' कहा करते थे। इस प्रकार आपका समय या तो तुकबन्दी करनेमें बीतता अथवा बड़ेबूढ़ोंके पास बैठकर अच्छी बातें सुनने में । साधारण लड़कोंके साथ न आप कभी बैठते और न कभी खेलते। श्री भंवरलालजी नाहटाके शब्दों में
"पिताजी हमेशा अगरचन्दजी काकाजीको 'कविसम्राट्' कहा करते; वैसे उन्हें 'बाबू' नामसे भी सम्बोधन किया जाता था। गवाड़के लड़कोंके साथ कभी नहीं खेलते । शामको पाटेपर बड़े-बूढ़ोंके पास बैठते; दादाजीके पैर दबाते । हमें बड़ोंका इतना भय और आतंक था कि कभी पतंग उड़ाना तो दूर, लूटनेके लिए भी छतपर नहीं जाते''।
श्री नाहटा जैसा अध्ययनशील, अन्तर्मुखी प्रवृत्तिका प्रतिभावान् बालक उच्चशिक्षा क्यों नहीं प्राप्त कर सका; जब कि धरके सब सदस्य विद्यानुरागी थे और आर्थिक स्थिति सुदृढ़ थी ? यह प्रश्न श्रद्धेय श्री नाहटाजीके सम्मुख प्रस्तुत किया गया। उन्होंने उच्चशिक्षा प्राप्त न कर सकनेके तीन कारण बताये।
प्रथम कारण बताते हुए श्री नाहटाजीने कहा कि "मेरे अग्रज श्री अभयराज नाहटा परिवारमें सर्वाधिक शिक्षित थे। इन्दौरमें वैद्य सम्मेलनमें १ धंटा उन्होंने ओजस्वी भाषण दिया था। वे विद्याव्यसनी और सभासंगोष्ठियोंमें सोत्साह सक्रिय भाग लेनेवाले सामाजिक कार्यकर्ता थे। सारा नाहटा परिवार उनकी वाग्मिता, विद्यानुराग और अध्ययनशीलतापर उल्लसित था; इनके अक्षर बहुत सुन्दर थे। उन्होंने कई पाठ्य पुस्तकें तैयार की व अन्त समयमें जयपुर में जिस रामनिवास बागके कमरेमें ठहरे थे उसकी सभी दीवारोंपर सूवाक्य लिखे और पुस्तकोंका ढेरका ढेर चारों तरफ लगा था। पक्षियोंको हाथपर रखकर दाना चुगाते थे इसी कारण उनकी मृत्युपर मयूर जोर-जोरसे कई दिन तक रोते रहे थे। लेकिन उनके अचिन्तित आक िमक निधनसे नाहटा-परिवारपर वज्र-सा पड़ गया। पूज्य पिताजी उनके ग्रन्थोंको शोकवश देख नहीं सकते थे; इसलिए वे दूसरोंसे इधर-उधर करवा दिये गये । इस दुर्घटनाके कारण परिवारमें सन्तानको पढ़ानेके लिए उत्साह नहीं रह गया था और उस मूक अनुत्साहका प्रथम शिकार मुझे ही होना पड़ा।"
द्वितीय कारणपर प्रकाश डालते हए श्री माहटाजीने बताया कि बचपनमें उनकी आँखें खराब हो गई थीं। वे दुखने लगीं और उनसे पानी पड़ने लगा। यह दुष्क्रम काफी लम्बा चला। इसलिए पिताजीने मेरी नेत्रज्योतिक्षोणताकी सम्भावित आशंकासे संत्रस्त होकर अध्ययन-त्रिराम करा दिया।
तृतीय कारणकी ओर संकेत करते हुए श्री नाहटाजीने बताया कि उन दिनों बोलपुरमें आरब्ध दुकानपर उन्हें रख दिया गया और बंगाली सीखनेके लिए व्यवस्था की गई । व्यापारका ज्ञान करानेकी ओर सबका ध्यान था। इसलिए उच्चशिक्षाको गौण मानकर छोड़ दिया गया।
निस्सन्देह ये तीनों ही कारण अपने आपमें पर्याप्त प्रबल थे और इन परिस्थितियोंमें सामान्यतः वही किया जाता, जो श्री नाहटाजीको करना पड़ा। लेकिन श्री नाहटाजीने अपने गहन अध्ययन, निरन्तर सुचिन्तित
१. श्री भंवरलाल नाहटा संस्मरण ।
जीवन परिचय : २७
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