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जोरजी
गुमानमलजी सरूप कंवर बोथरा बेटी समेरमलजा
ताराचंदजी रतनकंवरपारस बेटी सुखजी
जैतरूपजी हस्तकंवर बैद बेटी खेतसीजी १९०० में फूल घाल्या उदैचंदजो (१) राजरूपजी (२) देवचंदजी (३) बुधमलजी (४) उदयकंवर छाजेड़बेटी सिणगार कंवर दीपकंवर दुगड़ सावसुखाव बेढ कुवर बीजराजजीकी गांव छाजेड़ बेटी फसराजजी बेटी भीखनदास पेमचंदजी चुगनी छापरसे ४ कोश लूणकरणसर गोपालपुराके पास पहाड़ के पास मघा बरंठिया उपदेमलजी चांडासर गाँव उदीबाई गुलगुलिया गुलाबचंदजी नाल गाँव सेरो बाई गुलगुलिया राजमलजी नाल गाँव राजरूपजीके १ लक्ष्मीचंदजी २ दानमलजी ३ गिरधारीमल ४ शंकरदानजी
(चांदकवर सेठिया
मानकंवर ददा) पुत्री गौरीबाई (सुराना) सुगनी बाई (सांडमलचंदजी)
हंजू बाई (गोलछा अलकरणजी) प्रेरकतत्त्व बचपनमें पाठयक्रमकी पुस्तकमें एक दोहा पढ़ा था
करत करत अभ्यासके, जड़मति होत सुजान ।
रसरी आवत जाततै, सिलपर परत निसान ॥ साधारण नीतिके इस दोहेको सभी जानते हैं, सभी सुनते हैं, पर मेरे समस्त जीवनके लिए तो यह दोहा वरदान बन गया है। जाने क्या बात हुई कि इस दोहेको मैंने केवल पढ़ा नहीं, केवल गुनगुनाया ही नहीं, यह तो मेरे प्राणोंमें रम गया।
मैं जो कुछ बन गया, उसमें इस दोहेका कितना महत्व है, इसको कैसे बताऊँ।
मेरी स्कुलकी शिक्षा नहीं के बराबर समझिये । ५ वीं कक्षातक कुल ले देकर पढ़ पाया। श्री कृपाचन्द्र सूरिके समागम और उपदेशोंसे मैं वाङ्मयके विशाल सागरको थाहने चल पड़ा। साहित्य ठहरा सागर और
र; मुझे उस समय न संस्कृतका सम्यक ज्ञान था, न प्राकृत, अपभ्रश, मागधी, अर्धमागधी या गुजराती मारवाड़ी आदि देशी भाषाओंका; फिर भी 'करत-करत अभ्यासके' मुझे प्रेरणा देता रहा। मैं हारा नहीं ऊबा नहीं, निरन्तर अभ्यासमें रत रहा । फलतः असाध्य और कठिन कार्य सरल बन गया।
मेरे संग्रहमें करीब १५ हजार हस्तलिखित ग्रन्थ हैं, जिनकी पुरानी, विचित्र एवं विभिन्न लिपियाँ हैं । वे सभी मेरे लिए कठिन थीं, पर मुझे आत्म-विश्वास था। 'करत-करत अभ्यासके'। कोई मार्गदर्शक नहीं,
जीवन परिचय : २५
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